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________________ श्री चौबीसगणधर, प्रथम टोक दोहा तीर्थंकर चौबीस के, गणनायक हैं जेह। तिनकों पूजों अध्य ले, मनवच धारि सनेह।। ओं ह्रीं चतुर्विंशति जिनगणधरचरणकमलेभ्यः अयम् निर्वपामीति स्वाहा। सिद्धक्षेत्र जे और हैं, भरतक्षेत्र के ठाहि। और जु अतिशयक्षेत्र हैं, कहे जिनागम मांहि।। तिनके नाम सु लेत ही, पाप दूर हो जाय। ते सब पूजों अध्य ले, भव भव में सुखदाय।। ओं ह्रीं भरतक्षेत्रसम्बन्धि सिद्धक्षेत्रातिशयक्षेत्रेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। दीप अढ़ाई मांय, सिद्धक्षेत्र जे और हैं। पूजों अध्य चढ़ाय, भवभव के अघ नाश हैं।। ओं ह्रीं सार्धद्वीपद्वये विद्यमानसिद्धक्षेत्रेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। (अडिल्ल छन्द) पूजों तीस चौबीस परमसुखदाय जु। भूत भविष्यत् वर्तमान गुणगाय जू।। कहे विदेह के बीस नमों शिर नाय जू। अ) अध्य बनाय सुविघन पलाय जू।। ओं ह्रीं श्रीभूतभविष्यवर्तमानकाल सम्बन्धित्रिंशच्चतुविंशतिजिनेन्द्रेभ्यः विदेहक्षेत्र विद्यमान विंशतितीर्थंकरेभ्यश्च अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। दोहा चैत्य अकृत्रिम जे कहे, तीन लोक के मांय। ते सब पूजों अध्य ले, हाथ जोड़ शिरनाय।। ओं ह्रीं त्रिलोकसम्बन्ध्यकृत्रिमजिनालयजिनबिंबेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (लोलतरंग छन्द) मनमोहन तीरथ शुभ जानो, पावरपरम सुक्षेत्र प्रमानो। उन्नत शिखर अनूपमसोहे, देखत ताहि सुरासुरमोहे।। 153
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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