SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टकर्म को नष्ट करि, मुनि अष्टमक्षिति पाय। गुरु मम हृदयें वसो, भवदधि पार लगाय। ते सोरठा तारण तरण जहाज, भवसमुद्र के बीच में । मेरी बाँह, डूबत ते राखो मुझे।। अष्ट करम दुखदाय, ते तुमने चूरे सबै । केवलज्ञान उपाय, अविनाशी पद पाइयो।। मोतीसुत गुण गाय, चरणन शीश नवायके । मेटो भव भटकाय, मांगत अब वरदान यों।। ओं ह्रीं नाटककूटतः श्रीअरहनाथ जिनेन्द्रादि कोड़ाकोडि निन्यानवेलाख निन्यानवेहजार मुनि सिद्धपदप्राप्तेभ्यः श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्रेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 17. मल्लिनाथ, सम्बलकूट (सुन्दरी छन्द) कूट सम्बल परमपवित्र जू, गये शिवपुर मल्लिजिनेश जू। मुनिजुछ्यानवेकोड़ि प्रमानिये, पदजजत हृदय सुखआनिये।। (मोतीदास छन्द) भजों प्रभुनाम सदा सुखरूप, जजों मन में धर भाव अनूप। टरें अघपातक जांहि जु दूर, सदा जनकोसुख आनदपूर डरें ज्यों नाग गरुड़को देखि, भजेगजजुत्थजु सिंहय पेखि। तुम नाम प्रभु दुखहर्ण सदा, सुखपूर अनूपम होय मुदा तुम देव सदा अशरण शरणं, भटमोहबली प्रभु जी हरणं । तुमशरण गहो हम आय अबै, मुझ कर्मबली दृढ़ चूर सबै ।। ओं ह्रीं सम्बलकूटतः श्रीमल्लि नाथजिनेन्द्रादि छ्यानवेकोडिमुनि सिद्धपदप्राप्तेभ्यः श्रीसम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 145
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy