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________________ छोड़े सकल कषाय, गुप्ति समिति व्रत आदरै। बरतैं नगन सुभाय, सो चरित्राचार है।। ऊँ ह्रीं चारित्राचारसहिताचार्य परमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। कर्म हरण के काज, बल परकासै आपनो। तप संजम बहु साज, सो वीरज आचार है।। ऊँ ह्रीं वीर्याचारसहिताचार्य परमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। द्वादश विध तप ठानि, समता भाव सु परिणये । सो करि है कर्महानि, तपाचार सो जानिये।। ॐ ह्रीं तपाचारसहिताचार्य परमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। गुप्तियों का वर्णन (गीता छन्द) मन चपल है करि काय जैसो, कपि तने पद को लहें। ताकी विकलता लहर दधि ज्यों, जगत जिय वशि ना रहे। ते धन्य गुरु विश किया याको, आप या वशि ना रहे। मनगुप्ति याको जानि भविजन, या फलै शि सुर ऊँ ह्रीं मनोगुप्तिसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। ठहे || वचन निजवश राखि भाषत, जिन तनी वानी कहे। परमाद वच कबहूं न भाषे, ता थकी जिय अघ लहे ।। यह वचन गुप्ति सदीव आचारज, जिको पावें सही। मन वचन तन वसुद्रव्य ले करि, पद जजों इनके सही ॥ ऊँ ह्रीं वचनगुप्तिसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अघ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 1338
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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