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________________ ते शुद्ध भाव कारण महान, बंदन विधि करि हैं देव थान । तातें अघरज धोवें सुवीर, ता फल पावें भव समुद तीर।। ऊँ ह्रीं वन्दनावश्यकसहिताचार्य परमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। मुनि के मन वचन दोष लाय, सो दूरि करे प्रतिक्रमण भाय। उर आलोचन करि शुद्ध होय, ते सूरि नमों मद टारि जोय।। ऊँ ह्रीं प्रतिक्रमणावश्यकसहिताचार्य परमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। मनवच तन अघ विधि त्याग होय, लखि आवशि प्रत्याख्यान सोय। ये करें रोज आचार्य जान, ता फल चिन्ते अघ होय हान।। ऊँ ह्रीं प्रत्याख्यानावश्यकसहिताचार्य परमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। तन त्याग होंय थिर थान सोय, कायोत्सर्गावशि कर्म हो । ये करें रोज आचार्य मान, ताफल चिन्ते अघ होय हान ।। ऊँ ह्रीं कायोत्सर्गावश्यकसहिताचार्य परमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। पंचाचार का वर्णन सोरठा सकल पदारथ सोय, देखे शुध करि सरदहें। तातें शिव सुख होय, सो दर्शन आचार है।। ऊँ ह्रीं दर्शनाचारसहिताचार्य परमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। शुद्ध पदारथ भाव, जाने गुण पर्याय सब । ताकरि हो शिव वास, ज्ञानाचार सो जानिये ।। ऊँ ह्रीं ज्ञानाचारसहिताचार्य परमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 1337
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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