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________________ और थुति फल नाहि बांछा, नांहि अन मुखतें कहों।। ऊँ ह्रीं णमोसिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिभ्यः पूर्णाध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। आचार्य परमेष्ठि पूजा दोहा गुण छतीस तिन ढिंग रतन, भववनसंकट टार। नमों चरण तिनके सही, तिन गुण जांचन सार।। ऊँ ह्रीं षट्त्रिंशद्गुणसहिताचार्यपरमेष्ठिन् ! अत्र अवतार अवतरत संवौष्ट्। (आह्वानं) ऊँ ह्रीं षट्त्रिंशद्गुणसहिताचार्यपरमेष्ठिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं षट्त्रिंशद्गुणसहिताचार्यपरमेष्ठिन् ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्। चाल छन्द जे सब तें करुना आनें, सो उचित क्षमा को जानें। ते आचारज सुखदाई, सों पूजों अघ्य चढ़ाई || ऊँ ह्रीं उत्तमक्षमाधर्मसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। जो मान रंच नहिं लावें, सो मार्दव गुन को पावें। ते आचारज सुखदाई, सों पूजों अघ्य चढ़ाई || ऊँ ह्रीं उत्तमार्दवधर्मसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। जाके उर माया नाहीं सो आर्जव भाव कहाहीं । ते आचारज सुखदाई, सों पूजों अघ्य चढ़ाई || ऊँ ह्रीं उत्तमार्जवधर्मसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 1331
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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