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________________ ये गुण जामें देव कहावे, इन विन देवपना ना पावे। यातें देव परख करि सेवो, सुरग मुकति सुख को भवि वेवो।। घत्ता अँह ये गुण होई, देव सु सोई, मंगलकारी भव्यन को। सो मोकों तारो, पार उतारो, शिवसम्पति दे सव जनको।। ऊँ ह्रीं षट्चत्वारिंशदगुणसहितजिनेभ्यः पूर्णाध्यम्। सिद्धपरमेष्ठि पूजा अडिल्ल आठों कर्म निवारि, धारि गुण आठजू, भये निरजन छिन में सुख के ठाठ जू। बातबलै तनु ठये, लोकत्रयपति भये, ते सिध नमों सुभाय ज्ञानपूरति ठय।। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र अवतार अवतरत संवौष्ट। (आह्वानं) ऊँ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्। पद्धरि छन्द ये ज्ञानावरणी पंच वीर, जिन घात्यो जियगुण ज्ञान धीर। सब घाति अज्ञता लयो ज्ञान, ते सिद्ध जजों त्रय जग प्रधान।। ऊँ ह्रीं पंचप्रकारज्ञानावरणकर्मविनाशकसिद्धेभ्यः अध्यम् निर्वामीति स्वाहा। नवदर्शन वरनी दरश छाय, इन घातें तें भगवान थाय। सो धरे अनन्त दर्शन सुथान, ते सिद्ध जजों त्रय जग प्रधान।। ॐ ह्रीं नवप्रकारदर्शनावरणकर्मविनाशकसिद्धेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 1328
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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