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________________ गाथा गोम्मटदेवं वंदमि, पञ्चसयं धणुहदेहउच्चतं। देवा कुंडति बुट्टी, केसरिकुसुमाण तस्स उबरिम्भि।। (चौपाई छन्द) गोम्मटदेवं शरीर ऊँचाई, धनुष पाँच सौ, सुर बरसाई। ऊपर केशर कुसुम महान, बंदो तिनहिं जोर जुग पान।। ऊँ ह्रीं पञ्चविंशत्युत्तर-पञ्चशतधनुः कायविराजितगोम्मटदेवपदाश्रितगोम्मटक्षेत्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। गाथा णिव्वाणठाण जाणिवि, अइसयठाणाणि अइसएसहिया। संजादमिच्चलोए, सव्वे सिरसा णमस्सामि।। सोरठा जो निर्वान सु ठाम, सुन्दर महा मनोग जे। पुनि अतिशय जुत ठाम, मध्यलोक तीरथ यजे।। ऊँ ह्रीं अस्मिन् मर्त्यलोके यानि निर्वाणक्षेत्राणि अतिशयक्षेत्राणि च सञ्जा-तानि तेभ्यः सर्वेभ्यः अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। पाँच प्रकार के केवलियों की अर्चना सर्वज्ञ विश्वपदार्थ ज्ञायक, समोसरन जो अवनि तें। चउकाल अथवा इन्द्र गणधर, सभानायक प्रसन तैं।। उचरन्त दिव्यध्वनि अनक्षर आदि अतिशय जहँ घने। सातिशय केवलि श्रीजिनेश्वर, तिनहिं पूजें हित तने। 128
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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