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________________ जल-फल अघ्य बनाय, परम उतकृष्ट सु धारी। अघ्य देहिं कवि 'लाल', सु जिनपद जज बलिहारी।। भूमि मन्दिरन-तनी, जहाँ जिनभवन विराजें, पाँच मन्दिरन-बीच, जजों सुर शिवपद-काजें ।। ॐ ह्रीं चतुर्दिशासम्बन्धि-चैत्यभूमिमन्दिरस्थजिनप्रतिमाभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला - दोहा चैत्यभूमि मन्दिरन की पूजा भई विशाल। जयजयजय सुर करत है 'लाल' भने जयमाल। (पद्धरि छन्द) जय-जय-जय प्रथम सु भूमि जान जय, जिन-मन्दिर तामें बखान। जय ताको वर्णन बहु- विशाल, सुनियो भवि मन-वच-तन त्रिकाल ॥ जय नील-रत्नमय भूमि सार, जय तापर जिनमन्दिर अपार। श्रेणीबँध पाँच कहे विचार, जय बीच जिनेश्वर - भवन धार।। जय तुंग-भूमि सोहे विशाल, तापर जिनमन्दिर बहु रसाल। जय जिनगृह तोरण-सहित द्वार, जय तिनके आगे चौक सार।। जय लागे सिवान जु शोभकार, जय मणिमय रत्न जड़े निहार । जय चार जु दरवाजे अनूप, आभ्यन्तर - रचना सुनो भूप ।। जय पुजक जिनके थित सु थान, बनि रहे जहां मणि रज्यमान। जय कोठा तीन दिशा स जान, जय चारों दश बारह प्रमान ॥ जय तिन पर गुमठीं शोभाकार, जय कलशा ता ऊपर निहार। जय तापर ध्वजा अनूप सार, लहकें मानों हों नृत्यकार।। जय आसपास कोठा सु जान जय, रह्यो बीच में चौक मान । 1220
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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