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________________ मणिमय दीप अमोलक लेकर कनक रकाबी धारों । मोहतिमिर के नाशन कारन जगमग जोति उजारों ।। मानस्थम्भ की उत्तरदिश में श्री जिनबिम्ब सुहावें । देखत हरष होत भवि-जीवन पूजत सुर शिव पावें।। ॐ ह्रीं उत्तरदिशि मानस्तम्भ-स्थित जिनप्रतिमाभ्यः दीपं निर्वपामीति स्वाहा। धूप सुगन्ध समूह अनुपम खेय अग्नि में बालों। अष्टकरम ये दुष्ट भयानक इनको तुरतहिं जालों || मानस्थम्भ की उत्तरदिश में श्री जिनबिम्ब सुहावें । देखत हरष होत भवि-जीवन पूजत सुर शिव पावें।। ऊँ ह्रीं उत्तरदिशि मानस्तम्भ-स्थित जिनप्रतिमाभ्यः धूपं निर्वपामीति स्वाहा। लोंग-लायची-श्रीफल सुन्दर पिस्ता जाति घनेरा। पूजित जिनेश्वर शिवफल पैगे स्वर्गादिक सुख केरा।। मानस्थम्भ की उत्तरदिश में श्री जिनबिम्ब सुहावें । देखत हरष होत भवि-जीवन पूजत सुर शिव पावें।। ऊँ ह्रीं उत्तरदिशि मानस्तम्भ-स्थित जिनप्रतिमाभ्यः फलं निर्वपामीति स्वाहा। आइ दरब ले अध्य संजोयो पूजों श्रीजिन भाई । भवसागरतें पार उतारो जै-जै-जै जिनराई || मानस्थम्भ की उत्तरदिश में श्री जिनबिम्ब सुहावें । देखत हरष होत भवि-जीवन पूजत सुर शिव पावें।। ॐ ह्रीं उत्तरदिशि मानस्तम्भ-स्थित जिनप्रतिमाभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। मानस्तम्भ के चारों दिशाओं की जयमाल 1211
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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