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________________ दोहा चार दिशा की जानियो सोलहशाला आम। सोलह सहस सु तीन सौ चौरासी सु बखान।। ऊँ ह्रीं षोडशनृत्यशालासहित- चतुर्दिशाचतुर्द्धार संयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। (अडिल्ल छन्द) चौथी अन्तरगली ‘नृत्यशाला' कही, कल्पवासिनी देवी नाचत हैं सही। एकसहस चौबीस एक पारस भनो, चार पार्रव के जोड़ जान कितने गनो || भये हजार सु चार छियानवे जानिये, चार दिशा के जोड़ इकट्ठे मानिये । सोलह सहस सु धार तीन सौ सारजू, गिन चौरासी सरब परम सुखकारजू।। ऊँ ह्रीं कल्पवासिनीनृत्ययुक्त-चतुर्थान्तरवीथिकायां पूर्ववत् नृत्यशालासंयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। (सवैया इकतीसा छन्द) छटई जु अन्तर गली के विषं जान भई, नाट्यशाला बत्तिस विराजत विशाल जू। सोहत सु पचखने नृत्ये करें ज्योतिषिनी, नानाविध गान करें देत समताल जू।। बत्तिस हजार सात सै सुरीं विलोक वीर, नाचत जु अड़सठ गावत सु ख्याल जू। वर्णन करो बनाय नृत्यशाला को सु गाय, परम सु प्रीतिलाय भाखत सु लाल जू।। ॐ ह्रीं द्वात्रिंशत्नृत्यशालयुक्तषष्ठान्तरवीथिकासंयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। सोरठा नृत्य करें हरषाय पैंसठ सहस सु पाँच सौ । छत्तिस सुरी सु गाय चौंसठ शाला के विषै।। ऊँ ह्रीं प्रथमचतुर्थमार्गस्थ -अन्तरवीथिकायां चतुःषष्ठि नृत्यशालासहितसंयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा । 1203
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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