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________________ ऊँ ह्रीं एकलक्षोनचत्वारिंशतत्सहस्र-नवशताष्टाशीति-निधियुक्त-षट्-त्रिंशद्वारसंयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। (अडिल्ल छन्द) सोहें दरवाजे छत्तीस सुहावने, तिनके दोऊ पाश्वें चौ-चौ लाख ने। भये एक सौ चालिस चार सु जानिये, गनो पाश्व में वीर सु मन में मानिये।। तहाँ कंचनमणि-जडित सुपरदा देखिये, ता-ऊपर घट जान धूप को पेखिये। धूप सुगन्ध-प्रवाह सु निकसत धायकैं, मानों मेघ-घटा झुक रहि है आयकें।। उठी धूम को घटा चली आकाशकों, रहें सु अलिगण झूम लहें शुभवास कों। नानाविध शुभगन्ध धुआँ सु लिये सही, कर्मकाठ नित हत मनो निकसीवही।। ऊँ ह्रीं श्री गगनव्यापकघूम्रघटायुक्तद्वार संयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा। नृत्यशाला-वर्णन (अडिल्ल छन्द) पहली चौथी अन्तरगली निहारिये, छटवीं अन्तरगली सु मन में धारिये। तहाँ नृत्यशाला सुन्दर सु विशाल जी, नाचत देवी सुन्दर दे-दे ताल जी।। ऊँ ह्रीं प्रथमतुर्यष्ठवीथिकानाम् अन्तराले नृत्यशाला-युक्तपाश्वद्वयसंयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा। (सवैया इकतीसा) प्रथम गली के दोउ पाशर्वे विलोकि वीर, ऊपर सु तिखने बने हैं शोभादार जू। एक नृत्यशाला-विर्षे बत्तिस बखाड़े जान, शोभें धूप-घटा दोय सुन्दर सु धार जू।। एक जो अखाड़ों तामें नाचती बत्तीस सुरी, नाचे भवनवासिनी करें कटाक्ष सार जू।। बत्तीस को बत्तीस गुनो करो हो सम्हानि वीर, सुरी एक सहस सु चौबिस विचार ज॥ 1202
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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