SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1071
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंच कल्याणक-अर्ध्यावली (छन्द हरिपद) शुकल-छट्ठ बैशाख-विर्षे तजि, आये श्री जिनदेव। सिद्धारथ माता के उरमें, करे सची शुचि सेव।। रतन-वृष्टि आदिक वर-मंगल, होत अनेक प्रकार। ऐसे गुननिधि कौं मैं पूजौं, ध्यावों बारम्बार।। ॐ ह्रीं बैशाखशुक्ल-षष्ठीदिनेगर्भमंगल-मंडिताय श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।। माघ-शुकल-तिथि-द्वादशि के दिन, तीन-लोक-हितकार। अभिनंदन आनंदकंद तुम, लीन्हों जग-अवतार।। एक महूरत नरकमाँहि हू, पायो सब जिय चैन। कनक-वरन कपि-चिह्न-धरन, पद जजों तुम्हें दिन रैन।। ॐ ह्रीं माघशुक्ल-द्वादश्यां जन्म मंगल-मंडिताय श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।। साढ़े-छत्तिस-लाख सु-पूरब, राजभोग वर भोग। कछु कारन लखि माघ-शुकल-द्वादशि को धार्यो जोग।। षष्टम नियम समापति करि लिय, इंद्रदत्त-घर छीर। जय-धुनि पुष्प-रतन-गंधोदक-वृष्टि सुगंध-समीर।। ॐ ह्रीं माघशुक्ल-द्वादश्यां दीक्षाकल्याणक-प्राप्ताय श्री अभिनंदननाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।। 1071
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy