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________________ नहि रंच आभूषण गहें तन तेल इत्र नसेवते। रहत वैरागी वे सब में त्याग मंजन रेवते || साधु मेरे उरवसो सब पाप क्षण में नाश हो । पूज वसुविध अ लेकर ज्ञान दिव्य प्रकाश हो।। ऊँ ह्रीं श्री दन्त धावन त्याग मूल गुण धारक साधु देवेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।2।। जय रहित वस्त्र सु नगनतन हो, ओढते न विछावते । सहत शीत उष्णता को आत्म निज को ध्यावते॥ ते साधु मेरे उरवसो सब पाप क्षण में नाश हो। पूज वसु विध अ लेकर ज्ञान दिव्य प्रकाश हो ।। ॐ ह्रीं श्री नगन तन मूल गुण धारक साधु देवेभ्योऽघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥3॥ निजहस्त सिर के मूंछ दाढ़ी केशलुंचन करत हैं। नहि चहत है वे पर सहायक जीव रक्षा धरत है।। साधु मेरे उरवसो सब पाप क्षण में नाश हो। वविध लेकर ज्ञान दिव्य प्रकाश हो ।। ॐ ह्रीं श्री केशलुंचन मूल गुण धारक साधु देवेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा॥4॥ आतमध्यावते। इक बार दिन में करत भोजन शुद्ध रस रहित नीरस असन लेवें साधु कर्म नशावते || ते साधु मेरे उरवसो सब पाप क्षण में नाश हो । पूज वसु विध अ लेकर ज्ञान दिव्य प्रकाश हो।। ऊँ ह्रीं श्री एक बार भोजन मूल गुण धारक साधु देवेभ्योऽघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।5।। 1002
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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