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________________ जय वंदन करते बार बार, जिन देव तनी है सुखदसार। यह वंदन आवश्यक महान, हम पूजें सुन्दर द्रव्य आन।। ऊँ ह्रीं श्री बंदना मूल गुण धारक साधु देवेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।3।। जय रात दिवस जो दोष होय, जय ऊठत बैठत गमन होय। उस अघ नाशन के हेतु आप, शुभ करे प्रतिक्रम और जाप।। ऊँ ह्रीं श्री प्रतिक्रमण मूल गुण धारक साधु देवेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा॥4॥ मुनि षटरस युत सब वस्तु त्याग, जय करे अपोषण तयजत राग। वह होवे प्रत्याख्यान सार, हम पूजें मुनिवर बार-बार।। ऊँ ह्रीं श्री प्रत्याख्यान मूल गुण धारक साधु देवेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।5।। जिस आसन से मुनि ध्यान धार, वैराग्य चितारे जग असार। उपसर्ग होय बहु विध प्रकार, नहि छोड़े आसन निज विचार।। ॐ ह्रीं श्री कायोत्सर्ग मूल गुण धारक साधु देवेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।6।। सप्त शेष गण (गीता) जब ऊँच नीच सुहोय भूमि खण्ड कंकर सहित हो। शयन करते शुद्ध पृथ्वी, किन्तु प्राणी रहित हो।। ते साधु मेरे उरवसो सब पाप क्षण में नाश हो। पूज वसु विध अध्य लेकर ज्ञान दिव्य प्रकाश हो।। ऊँ ह्रीं श्री एकाशन शयन मूल गुण धारक साधु देवेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।। 1001
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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