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________________ १२ समन्तभद्र-विचार-दीपिका परलोक ) और बन्ध-मोक्षादिकी व्यवस्था कैसे नहीं बन सकती । बात बिल्कुल स्पष्ट है, ये सब अवस्था चूँकि अनेकान्ताश्रित है— अनेकान्तके आश्रय बिना इन परस्पर विरुद्ध मालूम पड़ने वाली मापेक्ष अवस्थाकी कोई स्वतन्त्र सत्ता अथवा व्यवस्था नही वन सकती, इसलिये जो अनकान्तके वैरी है- अनेकान्तसिद्धान्तमे द्वेष रखते है -उनके यहा ये सब व्यवस्था सुघटित नहीं हो सकतीं । अनेकान्तके प्रतिषेव क्रम अक्रमका प्रतिषेध हा जाता है, क्योंकि क्रम अक्रमकी अनेकान्तक साथ व्याप्ति है । जब अनेकान्त ही नहीं तब क्रम अक्रमको व्यवस्था के वन सकती है? अर्थात द्रव्य के अभाव में जिस प्रकार गुण पर्यायका र वृक्षक अभावमं शीशम, जामन, नीम, आम्रादिका कोई व्यवस्था नहीं बन सकती उसी प्रकार अनेकान्तक प्रभावमं क्रम-यक्रमकी मी व्यवस्था नहीं बन सकती । क्रमाक्रमकी व्यवस्था न वननस अर्थक्रियाका निषेध हो जाता है, क्योंकि क्रियाका क्रम क्रम के साथ व्याप्ति है । यर अथत्रियाके भाव कर्मादिक नहीं बन सकते - कर्मादिककी अथक्रिया के साथ व्याप्ति है। जब शुभशुभ कर्म ही नहीं बन सकते तब उनका फल मुख-दुख, फलभोगका क्षेत्र जन्म-जन्मान्तर ( लोक-परलोक ) और कर्मोनि वने तथा छूटने की बात तो कैसे बन सकती है साराश यह कि अनेकान्तके आश्रय विना ये सब शुभाशुभ - कर्मादिक निराश्रित हो जाते है, और इसलिये सवा निव्यादि एकान्तवादियों के मतम इनकी काई ठीक व्यवस्था नहीं बन सकती । वे यदि इन्हें मानते है और तपश्चरणादिक अनुष्ठान द्वारा सत्कर्मोका अजन करके उनका सत्फल लेना चाहते है अथवा कम मुक्त होना चाहते है तो वे अपने इस इको अनेकान्तका विरोध करक बाधा पहुँचाते है, और इस तरह भी अपनेको स्व-परर-वैरी सिद्ध करते है । 2
SR No.009240
Book TitleSamantbhadra Vichar Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1954
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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