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________________ स्व-पर-वैरी कौन ? "मिथोऽनपेक्षाः स्व-पर-प्रणाशिनः" "परस्परेक्षाः स्व-परोपकारिणः" इन वाक्योके द्वारा इसी सिद्धान्तकी स्पष्ट धापणा की है । आप निरपेक्षनयोको मिथ्या और मापेक्षनयोको मम्यक बतलाते है। आपके विचारसे निरपेक्षनयोका विपय अर्थक्रियाकारी न होने में अवस्तु है और सापेक्षनयाका विषय अर्थकृत (प्रयोजनसाधक) होनेमे वस्तुतत्त्व है । इस विपयकी विशेष चर्चा एव व्याख्या इसी विचारदीपिकामे अन्यत्र की जायगी । यहॉपर सिर्फ इतना ही जान लेना चाहिये कि निरपेक्षनयोका विषय 'मि' या एकान्त' और सापेक्षनयोका विषय 'सम्यक एकान्त' है। और यह सम्यक एकान्त ही प्रस्तुत अनेकान्तक साथ अविनाभावसम्बन्धको लिये हा है। जो मिथ्या एकान्तके उपासक होते है उन्हें ही 'कान्तग्रहरक्त' कहा गया है. वही 'सर्वथा एकान्तवादी' कहलाते है और उन्हें ही यहाँ 'स्वपरवैरी' समझना चाहिये । जो सम्यक एकान्तके उपासक होते है उन्हे 'कान्तग्रहरक्त' नहीं कहत, उनका नेता 'म्यात' पद होता है, व रस एकान्तको कथंचित रूपने स्वीकार करते है. इसलिये उसमे मर्वथा श्रासन नहीं होने और न प्रतिपक्ष धर्मका विरोध अथवा निराकरा की मते --- सापेक्षावस्थाम विचारक नमय प्रतिपक्ष धर्मकी पेक्षा न होने सके प्रति एक प्रकारकी उपेक्षा ना होती है किन्तु उसका विरा अपवा निराकरण नहीं होता । और इसीमे वे 'स्व-पर-वैरी' न बह जा सकते । अत म्वामी मान्त मद्रक यह रहना विन्कुल ठीक है कि 'जो एकान्तग्रहरक्त होते है वे म्ब परवैरी होते है।' ___ अब देखना यह है कि ये मनपरवैरी एकान्तवादियोके मनमें शुभ-अशुभ-कर्म, कर्मफल, सुन्व-दुख जन्म-जन्मान्तर (लोक* निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वम्त तेऽर्थकृत ।। १०८ ।। —देवागम
SR No.009240
Book TitleSamantbhadra Vichar Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1954
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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