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________________ धवला उद्धरण 58 मतिज्ञान और मतिज्ञान के 336 भेद अभिमुह-णियमिय-बोहणमाभिणिबोहियमणिदि-इंदियंज। बहु-ओग्गहाइणा खलु कय-छत्तीस-ति-सय-भेय।।182।। मन और इन्द्रियों की सहायता से उत्पन्न हुए अभिमुख और नियमित पदार्थ के ज्ञान को आभिनिबोधिक ज्ञान कहते हैं। उसके बहु आदिक बारह प्रकार के पदार्थ और अवग्रह आदि की अपेक्षा तीन सौ छत्तीस भेद हो जाते हैं।।182॥ श्रुतज्ञान एवं उसके भेद अत्थादो अत्थतर-उवलंभो तं भणति सुदणाणं। आभिणिबोहिय-पुव्वं णियमेणिह सद्दजं पमुह।।183।। मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ के अवलम्बन से तत्संबंधी दूसरे पदार्थ के ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान नियम से मतिज्ञानपूर्वक होता है। इसके अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक अथवा शब्दजन्य और लिंगजन्य इस प्रकार दो भेद हैं। उनमें शब्दजन्य श्रुतज्ञान मुख्य है।।183।। अवधिज्ञान एवं उसके भेद अवहीयदि त्ति ओही सीमाणाणे त्ति वण्णिदं समए। भव-गुण-पच्चय-विहियं तमोहिणाणे त्ति णं बेति।।184।। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा जिस ज्ञान के विषय की सीमा हो उसे अवधिज्ञान कहते हैं। इसलिये परमागम में इसको सीमाज्ञान कहा है। इसके भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय ये जिनेन्द्रदेव ने दो भेद कहे हैं।।184।। मनःपर्ययज्ञान चिंतियमचिंतियं वा अद्धं चिंतियमणेयभे यगय । मणपज्जवं ति उच्चइ जं जाणइ तं खु णर-लोए।।185।।
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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