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________________ 57 धवला पुस्तक 1 अकषाय जीव अप्प-परोभय-बाधण-बंधासंजम-णिमित्त-कोधादी। जेसि पत्थि कषाया अमला अकसाइणो जीवा।।178।। जिनके स्वयं अपने को, दूसरे को तथा दोनों को बाधा देने, बन्ध करने और असंयम करने में निमित्तभूत क्रोधादि कषाय नहीं हैं तथा जो बाह्य और अभ्यन्तर मल से रहित हैं ऐसे जीवों को अकषाय कहते हैं।।178।। मति-अज्ञान (मत्यज्ञान) विस-जंत-कूड-पंजर-बंधादिसु विणुवदेस-करणेण। जा खलु पवत्तइ मदी मदि-अण्णाणे त्ति तं बेति।।179।। दसरे के उपदेश बिना विष, यन्त्र. कट. पंजर तथा बन्ध आदि के विषय में जो बुद्धि प्रवृत्त होती है उसको मत्यज्ञान कहते हैं।।179।। श्रुताज्ञान आभीयमासुरक्खा भारह-रामायणादि-उवएसा। तुच्छा असाहणीया सुद-अण्णाणे त्ति तं बेति।।180।। चौरशास्त्र. हिंसाशास्त्र भारत और रामायण आदि के तच्छ और साधन करने के अयोग्य उपदेशों को श्रुताज्ञान कहते हैं।।180।। विभंगावधिज्ञान विवरीयमोहिणाणं खइयुवसमियं च कम्म-बीजं च। वेभंगो त्ति पउच्चई समत्त-णाणीहि समयम्हि।।181।। सर्वज्ञों के द्वारा आगम में क्षयोपशमजन्य और मिथ्यात्वादि कर्म के कारण रूप विपरीत अवधिज्ञान को विभंगावधिज्ञान कहा है।।181।।
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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