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________________ धवला पुस्तक 13 227 जह रोगासयसमणं विसोसणविरेयणो सहविहीहि। तह कम्मासयसमणं ज्झाणाणसणादिजोगेहि।।66।। जिस प्रकार विशोषण, विरेचन और औषध के विधान से रोगाशय का शमन होता है, उसी प्रकार ध्यान और अनशन आदि निमित्त से कर्माशय का भी शमन होता है।।66।। शुक्ल ध्यान के चिन्ह अभयासंमोहविवेगविसग्गा तस्स होति लिगाई। लिंगिज्जइ जेहि मुणी सुक्कज्झााणेवगयचित्तो।।67।। अभय, असंमोह, विवेक और विसर्ग ये शुक्ल ध्यान के लिंग हैं, जिनके द्वारा शुक्ल ध्यान को प्राप्त हुआ चित्तवाला मुनि पहिचाना जाता है।।67॥ चालिज्जइ वीहेइ व धीरो ण परिस्सहोवसग्गेहि। सुहुमेसु ण सम्मुज्झइ भावेसु ण देवमायासु।।68।। वह धीर परीषह और उपसर्गों से न तो चलायमान होता है और न डरता है तथा वह सूक्ष्म भावों में और देवमाया में भी नहीं मुग्ध होता है।।67।। देहविचित्तं पेच्छइ अप्पाणं तह य सव्वसंजोए । देहोवहिवोसग्गं णिस्संगो सव्वदो कुणदि।।69।। वह देह को अपने से भिन्न अनुभव करता है। उसी प्रकार सब प्रकार के संयोगों से अपनी आत्मा को भी भिन्न अनुभव करता है तथा निःसंग हुआ वह सब प्रकार से देह और उपाधि का उत्सर्ग करता है।।69।। ण कसायसमुत्थेहि वि बाहिज्जइ माणसेहि दुक्खहि। ईसाविसायसो गादिएहि ज्झाणोवगयचित्तो।।70।। ध्यान में अपने चित्त को लीन करने वाला वह कषायों से उत्पन्न
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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