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________________ 207 धवला पुस्तक 12 करती है।।4।। स्वाद्वाद की महिमा सर्वथा नियमत्यागी यथादृ ष्टमपेक्षकः। स्याच्छब्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम्।।1।। हे अरिजन! आपके न्याय में 'सर्वथा नियम को छोड़कर यथादृष्ट वस्तु की अपेक्षा रखने वाला 'स्यात्' शब्द पाया जाता है। वह आत्मविद्वेषी अर्थात् अपने आपका अहित करने वाले अन्य के यहाँ नहीं पाया जाता है।।1।। भंगायामपमाणं लघुओ गरुओ त्ति अक्खणिक्खेवो। तत्तो च दुगुण-दुगुणो पत्थारो विण्णसेयव्वो।।1।। भंगों के आयाम प्रमाण अर्थात् प्रथम पंक्तिगत भंगों का जितना प्रमाण हो उतने बार लघु और गुरु इस प्रकार से अक्षनिक्षेप किया जाता है तथा आगे द्वितीयादि पक्तियों में दुगुणे-दुगुणे प्रस्ताव का विन्यास करना चाहिये।।1।। अक्ष परिवर्तन पढमक्खो अंतगओ आदिग संकमेदि बिदियक्खो। दोण्णि वि गंतूणंतं आदिगदे संकमेदि तदियक्खो।।2।। प्रथम अक्ष अन्त को प्राप्त होकर जब पुनः आदि को प्राप्त होता है तब द्वितीय अक्ष बदलता है। जब प्रथम और द्वितीय दोनों ही अक्ष अन्त को प्राप्त होकर पुनः आदि को प्राप्त होते हैं तब तृतीय अक्ष बदलता है।।2।। ट्ठिदिघादे हंमते अणुभागा आउआण सव्वेसिं। अणुभागेण विणा वि हु आउववज्जाण दिट्ठदिघादो।।1।। स्थितिघात के होने पर जब आयुओं के अनुभागों का नाश होता है
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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