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________________ 203 धवला पुस्तक 11 पदार्थों के परिणमन में वह उदासीन निमित्त मात्र होता है।।।2।। कालाणु का लक्षण लोगागासपदेसे एक्के क्के जे ट्ठिया हु एक्केक्का। रयणाणं रासी दव ते कालाण मुणेयव्वा।।3।। लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर जो रत्नराशि के समान एक-एक पर स्थित हैं, उन्हें कालाणु जानना चाहिये।।3।। कालो त्ति य ववएसो सम्भावपरूवओ हवइ णिच्चो। उप्पण्णप्पर्द्धसी अवरो दीर्ह तरट्ठाई।।4।। 'काल' यह नाम निश्चयकाल के अस्तित्व को प्रगट करता है, जो द्रव्य स्वरूप से नित्य है। दूसरा व्यवहार काल यद्यपि उत्पन्न होकर नष्ट होने वाला है, तथापि वह (समय सन्तान की अपेक्षा व्यवहार नय से आवली व पल्य आदि स्वरूप से) दीर्घकाल तक स्थित रहने वाला है।।4।। अच्छे दनस्य राशेः रूपं छेदं वदन्ति गणितज्ञः। अंशाभावे नाशं छेदस्याहु स्तन्वेव।।5।। जब राशि में कोई छेद नहीं होता तब वह गणितज्ञ उसका छेद एक मान लेते हैं (जैसे 3=3/1) और जब अंश का अभाव हो जाता है तब छेदों का भी नाश समझना चाहिये।।5।। प्रक्षेपकसंक्षेपेण विभक्ते यद्धनं समुपलद्ध। प्रक्षेपास्तेन गुणा प्रक्षेपसमानि खांडानि।।6।। प्रक्षेपों के संक्षेप अर्थात् योगफल का विवक्षित राशि में भाग देने पर जो धन प्राप्त हो उससे प्रक्षेपों को गुणा करने पर प्रक्षेपों के बराबर खण्ड होते हैं।।6।।
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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