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________________ धवला पुस्तक 10 195 अवहारेणोवट्टिद अवहिरणिज्जम्मि जं हवे लखें। तेणोवट्टिदमिट्ठ अहियं लद्धीय अद्धाणं ।।5।। भागहार का भज्यमान राशि में भाग देने पर जो लब्ध आता है उससे इष्ट को भाजित करने पर लब्धि के अधिक स्थान प्राप्त होते हैं।।5।। फालिसलागब्भहियाणुवारिदरूवाण जत्तिया संखा। तत्तियपक्खोवूणा गुणहाणीरूवजणणठं।।6।। फालिशलाकाओं से अधिक पूर्ववर्ती अंकों की जितनी संख्या हो, गुणहानि के स्थानों को उत्पन्न करने के लिये उतने प्रक्षेप कम करने चाहिये।।6।। ओजम्मि फालिसंखे गुणहाणी रूवसंजुआ अहिया। सुद्धा रूवा अहिया फाली संखम्मि जुम्मम्मि।।7।। फलियों की ओज अर्थात् विषम संख्या के होने पर गुणहानि में एक मिलाने पर अधिक स्थान आता है, एक जोड़ने पर अधिक गुणहानि आती है और फलियों की सम संख्या के होने पर शून्य जोड़ने पर अधिक गुणहानि आती है।।7।। तिण्णं दलेण गुणिदा फालिसलागा हवंति सव्वत्थ। फालिं पडि जाणेज्जो साहू पक्खवरूवाणिं।8।। तीन के आधे से गुणा करने पर सर्वत्र फालि की शलाकायें होती हैं और प्रत्येक फालि के प्रति प्रक्षेप रूपों को भले प्रकार से जान लेना चाहिये(?)।।8।। फालीसंखं तिगुणिय अद्धं काऊण सगलरूवाणि। पुणरवि फालीहि गुणे विसेससंखाणमेदि फुडं।9।। फालियों की संख्या को तिगुणा कर फिर आधा करने पर जो समस्त अंक प्राप्त होते हैं, उन्हें फिर भी फलियों की संख्या से गुणित करने पर
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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