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________________ धवला उद्धरण 178 कृतिकर्म का लक्षण दुओणदं जहाजादं बारसावत्तमेय वा। चउतीसं तिसुद्धं च किदियम्म पउंजए।।66।। यथाजात अर्थात् जातरूप के सदृश क्रोधादि विकारों से रहित होकर दो अवनति, बारह आवर्त, चार शिरोनति और तीन शुद्धियों से संयुक्त कृतिकर्म का प्रयोग करना चाहिये।।66।। श्रुत के पदों की संख्या कोटीशतं द्वादश चैव कोट्यो लक्षाण्यशीतिस्त्रयधिकानि चैव। पंचाशदष्टौ च सहस्रसंख्या एतच्छुतं पंच पदं नमामि।।67।। एक सौ बारह करोड़ तेरासी लाख अट्ठावन हजार पांच पद प्रमाण इस श्रुत को मैं नमस्कार करता हूँ।।67।। षोडशशतंचतुस्त्रिंशत्कोटीनां त्रयशीतिमेव लक्षाणि। शतसंख्याष्टासप्ततिमष्टाशीति च पदवर्णान्।।68।। सोलह सौ चौंतीस करोड़ तेरासी लाख अठत्तर सौ अठासी मात्र एक पद के वर्णों को (नमस्कार करता हूँ)।।68।। पद विभाग तिविहं तु पदं भणिदं अत्थपद-पमाण-मज्झिमपदं ति। मज्झिपदेण मणिदा पुव्वंगाणं पदविभागा।।69।। अर्थपद्, प्रमाणपद और मध्यम पद, इस प्रकार पद तीन प्रकार कहा गया है। इनमें मध्यम पद से पूर्व और अंगों के पदविभाग कहे गये हैं।।69।। कध चरे कध चिट्ठे कधमासे कधसए। कधं भुजेज्ज भासेज्ज कंधे पावं ण बज्झदि।।70।।
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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