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________________ धवला उद्धरण 160 बाईस, सोलह और इसके आगे नौ तक एक-एक कम अर्थात् पन्द्रह, चौदह, तेरह, बारह, ग्यारह, दश, नौ और सात, इस प्रकार क्रम से मिथ्यात्वादि अपूर्वकरण तक आठ गुणस्थानों में, अनिवृत्तिकरण के सात भागों में तथा सूक्ष्मसाम्परायादि सयोग केवली तक शेष गुणस्थानों में बन्ध प्रत्ययों की संख्या है।।22।। गुणस्थानों में बन्ध प्रत्यय दस अट्ठारस दसयं सत्तरह णव सोलसं च दोण्णं तु। अट्ठ स चोद्दस पणयं सत्त तिए दुति दु एयमेयं च।।23।। मिथ्यात्व गुणस्थान में दश व अठारह, सासादन में दश व सत्रह, मिश्र और अविरत सम्यग्दृष्टि में नौ व सोलह, संयतासंयत में आठ और चौदह, प्रमत्तसंयतादिक तीन में पाँच व सात, अनिवृत्तिकरण में दो व तीन, सूक्ष्मसाम्पराय में दो तथा उपशान्त कषाय, क्षीणकषाय एवं सयोगिकेवली गुणस्थानों में एकमात्र इस प्रकार एक जीव के एक समय में जघन्य व उत्कृष्ट बन्ध प्रत्यय पाए जाते हैं।।23।। आगमचक्खू साहू इंदिसचक्खू असे सजीवा जे। देवा य ओहिचक्खू केवलचक्खू जिणा सव्वे।।24।। साधु आगम रूप चक्षु से संयुक्त तथा जितने सब जीव हैं वे इन्द्रिय चक्षु के धारक होते हैं। अवधिज्ञान रूप चक्षु से सहित देव तथा केवलज्ञान रूप चक्षु से युक्त सब जिन होते हैं।।24।।
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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