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________________ 159 धवला पुस्तक है।।17-18॥ सान्तर निरन्तर कर्म प्रकृतियाँ सांतरणिरंतरेण य बत्तीसवसेसियाओ पयडीओ। बन्झति पच्चयाणं दुपयाराणं वसगयाओ।।19।। शेष बत्तीस प्रकृतियाँ मूल व उत्तर भेद रूप दो प्रकार प्रत्ययों के वशीभूत होकर सान्तर-निरन्तर रूप से बंधती हैं।।19।। गुणस्थानों में बन्ध प्रत्यय चदुपच्चइगो बंधो पढमे उवरिमतिए तिपच्चइओ। मिस्सगबिदिओ उवरिमदुगं च देसे गदे सम्हि।20।। उवरिल्लपंचए पुण दुपच्चओ जोगपच्चओ तिण्णं। सामण्णपच्चया खलु अट्ठण्णं होंति कम्माणं|21।। प्रथम गुणस्थान में चारों प्रत्ययों से बन्ध होता है। इससे ऊपर तीन गुणस्थानों में मिथ्यात्व को छोड़कर शेष तीन प्रत्यय संयुक्त बन्ध होता है। संयम के एकदेशरूप देशसंयत गुणस्थान में दूसरा असंयम प्रत्यय मिश्ररूप तथा उपरितन कषाय व योग ये दोनों प्रत्ययों से बंध होता है। इसके ऊपर पाँच गुणस्थान में कषाय और योग इन दो प्रत्ययों के निमित्त से बन्ध होता। पुनः उपशान्तमोहादि तीन गुणस्थानों में केवल योगनिमित्तक बन्ध होता है। इस प्रकार गुणस्थान क्रम से आठ कर्मों के ये सामान्य प्रत्यय हैं।20-21| बंध प्रत्ययों की संख्या पणवणा इर वण्णा तिदाल छादाल सत्ततीसा य। चदुवीस दु-बावीसा सोलस एगूण जाव णव सत्तं।।22।। पचपन, पचास, तेतालीस, छयालीस, सैंतीस, चौबीस, दो बार
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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