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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [हे धनपाल ! ये हरिण आकाश में उछल रहे हैं और शूकर जमीन में खड्डा खोद रहे हैं- इसका कारण क्या इस पर धनपालने कहा : मुञ्ज ! त्वदस्त्रचकिताः श्रयितु प्रयान्ति ह्य के मृगाङ्क मृगमादिवराह मन्ये ॥ [हे मुज! आपके अस्त्र (बाण) से चकित (भीत) होकर हरिण चाँद के मृग का और शूकर आदिवराह का आश्रय लेने को जा रहे हैं] फिर पूछा : “यह शूकर और हरिण-दोनों हमारी ओर देख रहे हैं। क्या कहना चाहते हैं ये ?" धनपाल : “राजन् ! शूकर कहना चाहता है रसातलं यातु यदत्र पौरुषम् ___ कुनीतिरेषाऽशरणो ह्यदोषवान् । निहन्यते यदलिनाऽतिदुर्बलो हा हा महाकष्टमराजकं जगत् ॥ [यहाँ जो पौरुष है, वह पाताल में चला जाय; क्योंकि यहाँ बलवान् के द्वारा अनाथ निर्दोष अत्यन्त दुर्बल मार डाला जाता है। अरे ! यह कितने कष्ट की बात है कि सारा जगत् अराजक (जिसका कोई रक्षक न हो ऐसा) हो गया है ? ] और मृग कह रहा है : पदे पदे सन्ति भटा रणोद्भटा न तेषु हिंसारस एष पूर्यते ? धिगीदृशं ते नृपते ! कुविक्रमम् कृपाश्रये यः कृपणे मृगे मयि ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.008725
Book TitleMitti Me Savva bhue su
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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