SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [हे राजन् ! कदम-कदम पर युद्ध में कुशल सैनिक हैं। उनके द्वारा हिंसा का रस क्यों प्राप्त नहीं कर लिया जाता? तुम्हारे उस बुरे पराक्रम को धिक्कार है, जो कृपापात्र बेचारे मुझ मृग पर किया जा रहा है।] मुज इन तीनों श्लोकों को सुनकर विचारमग्न हो गया। यह देखकर धनपाल ने स्वयं अपनी ओर से एक श्लोक बना कर इस प्रकार सुनाया : वैरिणोऽपि हि मुच्यन्ते प्राणान्ते तण-भक्षणात् । तृणाहाराः सदैवैते हन्यन्ते पशवः कथम् ॥ [प्राण संकट में हों तब मुह में तिनका ले लेने पर दुश्मन भी छोड़ दिये जाते हैं। फिर हमेशा तिनकों का आहार करने वाले ये मृगादि पशु भला क्यों मारे जाते हैं ? ] यह सुनकर मुजने बाण तूणीर में रख लिया और पशुओं का शिकार सदा के लिए बन्द कर दिया। आचार्य श्रीमज्जगच्चन्द्रसूरि से प्रभावित, उदयपुर के एक महाराणाने भी पशु-पक्षियों के मांसभक्षण का त्याग कर दिया था। एक बार उनकी आँखों में भयंकर दर्द उठा। खूब इलाज कराये गये; परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। अन्त में एक वैद्य ने प्राणिजचिकित्सा का गुप्तरूप से प्रयोग करके उनकी आँखें बिल्कुल ठीक कर दी। बारीकी से खोजबीन करने पर ज्यों ही महाराणा को पता चला कि आँखों के लिए बनाई गई औषध में कबूतर के जिगर का प्रयोग किया गया था, त्यों ही प्रायश्चित स्वरूप सीसा गर्म करवा कर (पिघला हुआ उस का रस) For Private And Personal Use Only
SR No.008725
Book TitleMitti Me Savva bhue su
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy