SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (६) स्वाध्याय-श्रवण अर्थात् अवन्तिसुकुमाल का वृत्तान्त उज्जयिनी नगरी एक प्राचीन नगरी है। इस नगरी में जीवित स्वामी की प्रतिमा होने के कारण बड़े-बड़े आचार्य यहाँ दर्शनार्थ आते थे। इस कारण से ही आर्य सुहस्तिसूरि महाराज भी ५०० शिष्यों के साथ यहाँ पधारे और सेठानी भद्रा के मकान में वसति की याचना करके रहे । भद्रा सेठानी का मकान सातमंजिला था | उनके इकलौता पुत्र था । वह अत्यन्त लाडला था और पुष्पों की पंखुडियों से मानो उसकी देह निर्मित हुई हो उप प्रकार अत्यन्त सुकोमल था। अतः सभी उसे अवन्तिसुकुमाल के नाम से पहचानते थे । यह बालक छोटा था तब से वह एकाकी एवं विचारों में योगा रहता था । अतः युवा होने पर कदाचित् वह संन्यासी अथवा साधु न हो जाये उस भय से भद्रा माता ने वत्तीस कन्याओं के साथ उसका विवाह कर दिया। अवन्तिसुकुमाल अपनी पत्नियों के साथ सातवी मंजिल पर निवास करता था । उसकी दृष्टि एवं सृष्टि में स्त्रियाँ तथा विलास था । माता घर का सब काम-काज देखती और पुत्र को तनिक भी परिश्रम न पड़े उसका ध्यान रखकर उसे किसी भी व्यवाथा अथवा व्यवहार से दूर रखती और पुत्र प्रसन्न है अथवा नहीं, उसका ही सदा ध्यान रखती। एक दिन रात्रि के प्रथम प्रहर में अवन्तिसुकुमाल झरोखे में बैठा हुआ था । उसकी दृष्टि के समक्ष आमोद-प्रमोद का वातावरण था। वत्तीस पत्नियाँ एवं परिवार-जन प्रतिक्षण उसकी सेवा में तत्पर थे । फिर भी आज वह नित्य के इस कार्य से कुछ उकताया हुआ था। आकाश में उदित तारों और दूर-दूर स्थित स्थिर जंगलों को देखकर उसके मन में अनेक विचार उत्पन्न होते और पुनः लुप्त हो जाते । उस समय उसे दूर से कोई आवाज सुनाई दी । ध्वनि मन्द थी परन्तु उच्चारण स्पष्ट होने से वे शब्द उसके कानों में पड़ते ही हृदय में उतर गये और वह व्याकुल हो उठा । समय होने पर उसकी पत्नियाँ गहरी नींद में सो गईं। ५१ सा गई। अवन्तिसुकुमाल की समस्त इन्द्रियाँ निश्चेप्ट हो गईं थीं परन्तु कान एवं मन आवाज की दिशा में स्थिर थे। कुछ समय पश्चात् आवाज शान्त हो गई परन्तु अवन्तिसुकुमाल
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy