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________________ पुण्य, पाप, संयोग अर्थात् पुण्याढ्य राजा की कथा पुण्याढ्य! ले यह कल्पवृक्ष का फल ! उसे तू खा ले और अपनी देह की संकुचितता दूर करले। पुण्याढ्य ने कहा, हरितराज से तुम देव बने हो । अव पशु-सुलभ मोह प्रदर्शित मत करो। इस समय रात्रि है और रात्रि-भोजन श्रावक के लिए वर्जित होता है।' हस्तिदेव बोला, 'राजन! धन्य है तेरे दृढ़ व्रत को । तु दिन के समय फल का उपभोग करना और अपनी संकुचितता मिटाना ।' प्रातःकाल हुआ, अरुणोदय हुआ। नवकारशी का समय होने पर राजा ने देव गुरु के स्मरण, चिन्तन, अर्चन के पश्चात् उस फल को खाया और कंचनवर्णी देह प्राप्त की। समय व्यतीत होने पर जिस स्थान पर हाथी की मृत्यु हुई थी उस स्थान पर राजा एक वार गया । राजा को हाथी, उसके उपकार आदि का स्मरण हुआ, वैराग्य-भावना जाग्रत हुई। उसने उसकी मृत्यु के स्थान पर एक जिनालय का निर्माण कराया और उसके दर्शन करते समय भावोल्लास से केवलज्ञान तथा सिद्धिगति दोनों तुरन्त प्राप्त किये | पाप से पंगु और पुण्य से राजाधिराज बना जा सकता है, उसका जनता के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत कर, आत्म कल्याण किया । (वासुपूज्य चरित्र से)
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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