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________________ २६ सचित्र जैन कथासागर भाग - १ के दो कंकड़ों से चले गये । चक्रवर्ती के अंगरक्षकों ने ग्वाले को वन्दी बना लिया तव उसने इस कार्य के वास्तविक अपराधी ब्राह्मण को बताया । अन्धे ब्रह्मदत्त ने ब्राह्मण का नाश किया। इतना ही नहीं, प्रति दिन ब्राह्मणों के नेत्रों से भरा थाल अपने समक्ष प्रस्तुत करने का मंत्रियों को आदेश दिया । विचक्षण एवं दयालु मंत्रीगण राजा के समक्ष नित्य नेत्रों के समान श्लेषात्मक फलों का थाल रखते थे। राजा उन्हें ब्राह्मणों के नेत्र समझकर दाँत पीस कर हाथों से मसलता। इस प्रकार सोलह वर्षों तक मन से घोर पाप करता हुआ धर्महीन व्रह्मदत्त मर कर सातवी नरक में गया । वह चक्रवर्ती अठाईस वर्ष कौमार्य में, छप्पन वर्ष माण्डलिकता में, सोलह वर्ष भरतक्षेत्र को सिद्ध करने में और छ: सौ वर्ष चक्रवर्ती के रूप में रहा- इस प्रकार कुल सातसौ वर्प का आयुष्य भोगकर सातवीं नरक में गया। __ चौदह रत्न, चौसठ हजार रानिया और सोल हजार यक्ष न तो उसे नरक जाने से बचा सके और न उसकी वेदना को घटा सके । अन्त में दोनों बन्धुओं में से एक बन्धु धर्म-चक्रवर्ती बन कर मुक्ति में गया, दूसरा वन्धु छः खण्ड रूप पाप-ऋद्धि प्राप्त करके चक्रवर्ती वन कर सातवीं नरक में गया। इस प्रकार सदा के लिए उनके वन्धुत्व का अन्त हुआ। (त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, उपदेशमाला व उत्तराध्ययनवृत्ति से)
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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