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________________ पाप ऋद्धि अर्थात् ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती २३ शुभ मुहूर्त में पुप्पचूल नृप की पुत्री पुष्पवती के साथ ब्रह्मदत्त का विवाह हुआ। वर-वधू को भेजने के समय धनु मंत्री द्वारा पूर्व सूचना देने के कारण पुष्पचूल नृप ने अपनी पुत्री के बजाय दासी को भेज दिया। वर-वधू को लाक्षागृह में गहरी नींद में सोये हुए जान कर राजा दीर्घ एवं चुलनी के सेवकों ने लाक्षागृह में आग लगा दी। ब्रह्मदत्त विचार करने लगा कि यह क्या हुआ? इतने में वरधनु एक पत्थर को लात के प्रहार से दूर करके सुरंग में होकर ब्रह्मदत्त के साथ बाहर निकल गया । उसने संक्षेप में दीर्घ एवं उसकी माता के पडयन्त्र की तथा अपने पिता द्वारा निर्मित सुरंग की वात बताई । तत्पश्चात वे दोनों सिर मुण्डवा कर गुरु-शिष्य बनकर ब्राह्मण वेष धारण कर वहाँ से भाग गये। दीर्घ ने ब्रह्मदत्त को बन्दी बनाने के लिए अनेक सैनिक दौड़ाये, पर वह सफल नहीं हो सका। देश-देश में भ्रमण करते हुए ब्रह्मदत्त ने वन्धुमती, श्रीकान्ता, खण्डा, विशाखा, रत्नावली, कुरुमती आदि अनेक राजकुमारियों से विवाह किये और अनेक विद्याएँ प्राप्त की। __ घूमता-घूमता ब्रह्मदत्त अपने पिता के मित्र वाराणसी के राजा कटक के राज्य में पहुँचा । जव दीर्घ को ब्रह्मदत्त के कटक में होने का समाचार मिला तो उसने कटक के पास दूत भेज कर ब्रह्मदत्त को उसे सौंप देने की माँग की, परन्तु कटक ने उसकी माँग का तिरस्कार कर दिया। इस कारण ब्रह्मदत्त एवं दीर्घ में घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध के समाचार से चूलनी लज्जित हो गई। मन ही मन विचार करने लगी कि संसार में अधम से अधम मनुष्य भी न कर सके ऐसा कार्य करके मैंने स्वयं को तथा अपने पितृ कुल को कलंकित किया है, लज्जित किया है। इससे चूलनी को वैराग्य हो गया और उसने दीक्षा अंगीकार कर ली । घोर कुकर्म के क्षय के लिए उसने कठोर तप किया, और अन्त में उसने मुक्ति प्राप्त की। युद्ध में सैनिकों के युद्ध के पश्चात् दीर्घ स्वयं सामने आया, परन्तु पुण्य की प्रवलता से व्रह्मदत्त के हाथ में तुरन्त दैवी चक्र आ गया । ब्रह्मदत्त ने चक्र दीर्घ की ओर छोड़ा तो वह तुरन्त धराशयी हो गया और ब्रह्मदत्त का जय जयकार गूंज उठा। अनेक वर्षों के पश्चात् ब्रह्मदत्त ने पिता के नगर में प्रवेश किया। सच्चे उत्तराधिकारी को प्राप्त करके प्रजा गद्गद् हो गई और उसका सत्कार किया। तत्पश्चात् ब्रह्मदत्त ने चौदह रत्न प्राप्त किये, छः खण्डों पर विजय प्राप्त की और वह समस्त राजाओं का राजेश्वर बन कर चक्रवती बना । उसने चौसठ हजार राजकुमारियों के साथ विवाह किया, जिनमें से कुरुमती को उसने महारानी (पटरानी) बनाया। 'हे चक्रवर्ती! इस भव में तू चक्रवर्ती है और मैं श्रेष्ठि पुत्र हूँ | हम दोनों को जातिरमरण ज्ञान हुआ । जाति-रमरण ज्ञान होने पर मैंने ऋद्धि-सिन्द्रि का परित्याग करके दीक्षा अाकार की और बिहार करता हुआ मैं तेरे नगर में आया हूँ और मैंने तेरे श्लोक की पूर्ति की । बन्धु! ये वाद्धि-सिद्धि सब पूर्व भव के तप का प्रभाव है । अतः
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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