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________________ २२ सचित्र जैन कथासागर भाग - १ आगामी भव में ऐसी पत्नी प्राप्त हो तो कितना अच्छा हो? चित्र मुनि को जब इस वात का पता लगा तो उन्होंने कहा, 'मिथ्या दुष्कृत त्याग कर अपना मन ध्यान मार्ग की ओर मोड़ो।' परन्तु उनका यह समझाना व्यर्थ गया । अन्त में दोनों मुनि-बन्धु आयुः पूर्ण कर सौधर्म देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न हुए | हे चक्रवर्ती ! मैं (चित्र का जीव) प्रथम देवलोक में से च्यव कर पुरमताल नगर में धनाढ्य सेठ का पुत्र हुआ और तू (संभूति का जीव), वहाँ से च्यव कर कांपिल्य नगर के राजा ब्रह्म की रानी चूलनी की कुक्षि से चौदह स्वप्न-सूचित कंचन वर्णी ब्रह्मदत्त नामक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ | ब्रह्म राजा के काशी का राजा कटक, हरितनापुर का राजा कणेरुदत्त, कोशल का राजा दीर्घ और चम्पा का राजा पुष्फचूल ये चार मित्र थे। ये पाँचों अपनी रानियों के साथ एक-एक वर्ष एक दूसरे के नगर में रहते थे। एक वार वे पाँचों मित्र कांपिल्य नगर में सानन्द जीवन यापन कर रहे थे कि इतने में अचानक ब्रह्मराजा की शूल उठने से मृत्यु हो गई । अतः चारों मित्रों ने वारी-वारी से ब्रह्मदत्त वयस्क हो जाये तव तक राज्य की सुरक्षा का उत्तरदायित्व लिया | प्रथम वर्ष में यह कार्य कोशल के राजा दीर्घ ने सम्हाला, परन्तु दीर्घ राजा राज्य-कार्यवश चूलनी के साथ अधिक परिचय हो जाने से वह उस पर आसक्त हो गया। छोटा ब्रह्मदत्त दीर्घ एवं चूलनी की यह कुचेष्टा समझ गया | एक बार वह अन्तःपुर में कौए और कोयल को ले गया और उन्हें पीटते हुए उसने कहा, 'इस कौए और कोयल की तरह जो मनुष्य व्यभिचार का सेवन करेंगे, उन्हें मैं उचित दण्ड दूंगा।' ब्रह्मदत्त की यह वाल-चेष्टा दीर्घ को कटु प्रतीत हुई। उसने चूलनी को कहा, 'या तो ब्रह्मदत्त नहीं, या मैं नहीं।' चूलनी ने कहा, 'माता होकर मैं पुत्र की हत्या कैसे कर सकती हूं?' कामी दीर्घ बोला, 'पगली, मैं रहूँगा तो तेरे अनेक पुत्र हो जायेंगे।' विषय-विह्वल चूलनी अन्त में मन्द पड़ गई और बोली 'लोगों में हमारी निन्दा न हो ऐसी युक्ति से हम यह कार्य पूर्ण करेंगे।' । उन दोनों ने षड़यन्त्र रचकर गुप्त रीति से एक लाक्षागृह का निर्माण यह सोचकर करवाया कि विवाह के पश्चात् जव ब्रह्मदत्त इसमें सोयेगा तव स्वतः जलकर भरम हो जायेगा किंतु यह गुप्त वात राजभक्त धनु मंत्री को ज्ञात हो गई। अतः उसने वृद्धावस्था का बहाना बना कर के दीर्घ से अनुमति प्राप्त करके एक दानशाला प्रारम्भ की और वह धर्म-कार्य में प्रवृत्त हुआ | उसने गुप्त रीति से लाक्षागृह से बाहर निकलने वाली एक गुप्त सुरंग का निर्माण कराया तथा अपने पुत्र वरधनु को ब्रह्मदत्त की रक्षार्थ समरत वातों के उचित निर्देश देकर उसके पास रखा |
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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