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________________ जहाँ लाभ वहाँ लोभ अर्थात् कपिल केवली की कथा .. १४३ ज्चालाएँ उठती ही जायेंगी। उनका शमन तो जल छिड़कने पर होगा । लोभ रूपी दावानल के शमन के लिए सन्तोष रूपी जल की आवश्यकता होती है। कपिल का मन राजा की सम्पत्ति पर से उतर गया और साथ ही साथ दो माशा स्वर्ण की लालसा भी शान्त हो गई। उसे अपना भूतकाल स्मरण हुआ | माता ने मुझे श्रावस्ती विद्याध्ययन हेतु भेजा था। इन्द्रदत्त ने मेरे अध्ययन के लिए भोजन की व्यवस्था कर दी। मैं माता से विश्वासघात करके विद्याध्ययन के बजाय विषयाध्ययन में लीन हुआ। इन्द्रदत्त पुरोहित के शुभ प्रेम का मैंने दुरुपयोग किया | उसने मित्र-पुत्र समझकर मेरे भोजन का प्रवन्ध किया। जिसके घर मेरे भोजन का प्रवन्ध किया उसी की दासी के साथ मैंने व्याभिचार एवं प्रेमालाप करना प्रारम्भ किया। मैंने न तो माता का विचार किया, न इन्द्रदत्त का विचार किया, न किया ब्राह्मण धर्म के कुलाचार का विचार और न किया पिता की प्रतिष्ठा का विचार । मुझे अब राजा का राज्य नहीं चाहिये और न मुझे दासी की प्रसन्नता ही चाहिये । कपिल के मन में अपने दुराचार के प्रति तिरस्कार उत्पन्न हुआ । इस प्रगाढ़ वैराग्य के पश्चात् उसका मन विरक्त हो गया। उसने वहीं स्वयं ही केश लोच करके मुनि-वेष धारण किया और तत्पश्चात् वह राजा की पर्षदा में आकर बोला - यथा लोभस्तथा लाभो लाभाल्लोभः प्रवर्धते । माशद्वयाश्रितं कार्य, कोट्यापि नहीं तिष्ठितम्।। 'हे राजन्! ज्यों लाभ होता है त्यो लोभ की वृद्धि होती है । मेरे केवल दो माशा स्वर्ण का काम था । आप प्रसन्न हो गये और माँगूंगा वह प्रदान करने का कहा, जिससे मेरा चित्त लोभ में पड़ गया । वह चित्त लाख एवं करोड़ से भी शान्त नहीं हुआ | राजन्! अव मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिये । जो चाहिये वह मुझ में स्वयं में विद्यमान सन्तोषधन है और इरा सन्तोप-धन के प्रताप से मुझे जिसकी आवश्यकता थी वह मुनि-वेष मैंने धारण किया है। राजन्! आपको मेरा धर्मलाभ ।' यह कहकर मुनि ने राज-सभा से निकल कर पृथ्वी पर विहार करना प्रारम्भ किया। राजगृही नगर रो तनिक दूरी पर अठारह कोस का घना वन था । उस वन में पाँच सौ चोर रहते थे। वे यदा-कदा वन में से निकल कर किसी शहर अथवा गाँव को लूटकर पुनः वन में चले जाते। कपिल मुनि ने क्षपक श्रेणी में चढ़कर छः माह में केवलज्ञान प्राप्त किया और उन पाँच सौ चोरों को प्रतिवोध देने के लिए वे वन में प्रविष्ट हुए। दूर से चोरों ने उन्हें
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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