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________________ १४४ सचित्र जैन कथासागर भाग - १ आते देखा और वे उन्हें अपने पल्लीपति के पास ले गये । पल्लीपति ने कहा, 'महाराज, आपके पास क्या है कि हम आपको लूटें? हम सब एकत्रित हुए हैं तो आप थोड़ा नृत्य करें और हम तालियाँ बजा कर वाद्य-यन्त्र बजायें।' चोर ताली बजाने लगे और कपिल केवली ने नृत्य करते करते यह ध्रुव पद ललकारा'अनित्य, अस्थिर एवं दुःखमय संसार में मैं कौनसा कर्म करूँ कि जिससे मेरी दुर्गति न हो?' कपिल केवली एक के पश्चात् एक ध्रुवपद ललकारते रहे | वे समस्त पाँच सौ चोर व्याकुल हुए और केवली से संयम ग्रहण किया। कपिल केवली द्वारा उच्चारण किये गये ध्रुवपद 'कपिल केवली अध्ययन' के रूप में उत्तराध्ययन में सम्मिलित हुए। कपिल केवली कुछ समय तक विचरण कर मोक्ष गये। (उत्तराध्ययन-ऋषिमंडलवृत्ति से) - ज्ञान ज्ञान के द्वारा संसार से कैसे छूटा जाये यह कला सवको सीखनी है। संसार से मुक्त होकर आत्म-कल्याण किस प्रकार करना है, यह जानना है । पाप से पीछे हटना है । जवकि आज तो ज्ञान का दुरुपयोग हो रहा है। संसार में कैसे स्थिर हुआ जा सकता है उसकी कला खोजी जाती है। धन किस प्रकार एकत्रित करना है, भोगों का उपभोग कैसे करना है, संसार को हरा-भरा कैसे बनाना है आज तो इसके लिए ही ज्ञान का उपयोग होता है।
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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