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________________ १४२ सचित्र जैन कथासागर भाग - १ था। वहाँ एक दासी के साथ मेरा प्रेम हो गया और इस समय उसके लिये ही दो माशा स्वर्ण प्राप्त करने के लिए निकला था । मार्ग में मुझे चोर समझ कर सन्तरियों ने बन्दी बना लिया।' राजा कपिल की सत्य वाणी सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ और वोला, 'ब्राह्मणपुत्र! तुम जो मांगोगे मैं वह दूँगा | मैं तुम्हारी सत्यता से अत्यन्त प्रसन्न हुआ हूँ।' कपिल के मुँह से निकला, 'राजन्! क्या माँगना है उसका विचार करके कहूँ तो?' राजा ने कहा, 'कोई बात नहीं, विचार करके माँगो।' कपिल राज दरबार के पीछे अशोक-वटिका में जाकर सोचने लगा, 'मनोरमा ने दो माशा स्वर्ण माँगा है, परन्तु उसका भरोसा थोड़े ही है कि वह फिर स्वर्ण के आभूषण नहीं माँगेगी? और जब वह माँगेगी तव कहाँ से लाऊँगा? अतः राजा के पास एक सौ माशा स्वर्ण ही माँग लूँ ।' निश्चय करके जाने लगा तो विचार आया कि मनोरमा सेठ शालिभद्र के घर रहती है | कल बदि सेठ उसे निकाल दे और घर वसाना पड़े तो एक सौ माशा स्वर्ण से क्या होगा? राजा प्रसन्न हुआ है तो फिर एक हजार माशा स्वर्ण क्यों न माँगा जाये?' कपिल एक हजार माशा स्वर्ण माँगने का निश्चय करके खड़ा हुआ। दो कदम आगे चला तो विचार आया कि, 'यह तो गृहस्थी है, कल वालबच्चे होंगे, सबका काम एक हजार स्वर्ण माशे में थोड़े ही पूर्ण होने वाला है? यदि माँगना ही है तो एक लाख माशा ही माँग लूँ, परन्तु यह तो मैंने अपने स्वार्थ की ही वात की है। राजा प्रसन्न हुआ है तो परिवार, सम्बन्धियों, स्वजन स्नेहियों का भी कल्याण क्यों न करूँ? और उसके लिए तो एक करोड़ माशा हो तो ही ठीक रहेगा और माँगना भी उचित गिना जायेंगा।' कपिल का मन लोभ में आगे वढ़ा और सोचने लगा, 'यह सब तो ठीक है परन्तु गाँव में छप्पन करोड़पतियों का कहाँ अभाव है? हम माँगेंगे तो भी नगर के बड़े धनी तो नहीं ही गिने जायेंगे न? माँगें तो फिर कम क्यों माँगें? तो क्यो न राजा का आधा राज्य ही माँग लूँ ताकि अन्य कोई बराबरी करने वाला ही न रहे ।' राजा आधा राज्य प्रदान करे तो भी वह अपना तो ऊपरी ही रहेगा । तब क्या मैं सम्पूर्ण राज्य माँग लूँ? कपिल को राजा बनूंगा ऐसी सुख की लहर आई परन्तु पल भर के लिए गहराई में उतरने पर उसे विचार आया और अपनी आत्मा को सम्बोधित करके बोल उठा, 'अरे कपिल! तुझे आवश्यकता थी केवल दो माशा स्वर्ण की और तू वढ़ते-बढ़ते सम्पूर्ण राज्य लेने के लिए तत्पर हो गया? जिसने तेरे साथ सद् व्यवहार किया उसे ही तू वर्वाद करने पर तुल गया? क्या यह तेरी मनुष्यता है? लोभ का कोई अन्त है? यह तो दावानल तुल्य है, बढ़ता ही जायेगा | उसमें ज्यों ज्यों ईंधन डालोगे त्यो त्यों उसकी
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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