SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दृढ़ संकल्प अर्थात् महात्मा दृढ़प्रहारी १२९ तक जिसका नाम सुनकर जो काँप उठते थे, वे लोग 'मारो इस पापी-चोर ढोंगी को ' कह कर कोई उस पर पत्थर फेंकता, तो कोई 'इसने मेरे भाई की हत्या की थी उस प्रकार सुना कर लकड़ी से दो-चार प्रहार करके उसे लहू-लुहान करता है, परन्तु दृढ़प्रहारी तो वृक्ष के तने की तरह स्थिर रहा। एक दिन, दो दिन, इस प्रकार नित्य उसका तिरस्कार होता रहा । ड़ेढ़ मास व्यतीत होने पर दृढ़प्रहारी वहाँ से निकल कर नगर कोट के दूसरे द्वार पर कायोत्सर्ग ध्यान में खड़ा रहा । यहाँ भी वही प्रहार, गालियाँ एवं फटकार सहन करके डेढ़ महिना व्यतीत किया । इस प्रकार चारों दरवाजों पर लोगों ने उसे जितनी गालियाँ देनी थीं, जितनी फटकार सुनानी थी और पिटाई करनी थी वह सब की। दृढ़प्रहारी ने भी अपना मन दृढ़ किया और सोचा कि, 'मैंने भी कहाँ पाप कम किये है, अनेक व्यक्तियों का धन छीना है, अनेक व्यक्तियों के पिताओं, पुत्रों एवं भाइयों की हत्या की है, अनेक निर्दोष मनुष्यों के प्राण लिये है। ये तो विचारे मुझ पर प्रहार ही करते हैं परन्तु मुझे जितना दण्ड दें उतना मेरे पापों की तुलना में अल्प है।' दृढप्रहारी की देह चलनी के समान और सूखी लकड़ी के समान हो गयी । जब वह चलता तब उसकी हड्डियाँ ध्वनि करती थीं। उसकी समस्त नसें बाहर उठी हुई थी । एक समय का विशाल देहधारी दृढ़प्रहारी अब हाड़- पिंजर तुल्य बन गया था । अब उसे कोई चोर, लुटेरा, हत्यारा और पापी नहीं कहता था, क्योंकि उसे ऐसा कहकर और दण्ड देकर सब थक गये थे । Body सोमपुरा दृढ प्रहारी ने नगर के चारों ही द्वार पर डेढ़-डेढ महिने काउसग ध्यान में रह कर लोगों की फटकार, प्रहार, गालियाँ सहन की! एवं महात्मा दृढ प्रहारी बने!
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy