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________________ १२८ सचित्र जैन कथासागर भाग १ ब्राह्मण एवं गाय मारने में दृढ़प्रहारी का जो हाथ नहीं काँपा था, वह उस ब्राह्मणी के गर्भ के तड़पने से तथा बच्चों के करुण क्रन्दन से काँप उठा। बच्चों को चीखतेचिल्लाते देख कर स्वयं के प्रति घृणा हो गई। उसने तलवार दूर फैंक दी और रोतेविलखते बच्चों के आँसू पोंछने के लिए हाथ बढ़ाये । घड़ी भर पूर्व जो बच्चे ब्राह्मणी को निराधार प्रतीत हुए थे वे अब उस दृढ़प्रहारी को भी निराधार प्रतीत हुए और वह बोला, 'ये विचारे निराधार बच्चे क्या करेंगे? मैं महा पापी, ब्राह्मण स्त्री गाय- बालक का हत्यारा हूँ । मेरे पाप अधिक हैं मैंने सभी प्रकार के पाप किए हैं। मैं कहाँ पापमुक्त होऊँगा? मेरा क्या होगा ?" दृढ़प्रहारी कुशस्थल से बाहर निकला। उसके साथी कहाँ गये और वह कहाँ जा रहा था, उसकी उसे सुध नहीं थी । उसके नेत्रों के समक्ष तड़पता हुआ गर्भ और बालकों का करुण क्रन्दन घूम रहा था और उसके मन में यह पश्चात्ताप हो रहा था कि 'मुझसे अधिक कोई महापापी मनुष्य जगत् में होगा क्या?' तनिक दूर जाकर वह वरगद के वृक्ष के नीचे बैठ गया । पराक्रम एवं खुमारी के बल पर झूमता दृढप्रहारी आज सर्वथा लोथ तुल्य हो गया था । उसे अपने बल एवं पराक्रम निरर्थक प्रतीत हुए, उसे चोरी के प्रति तिरस्कार हो गया और जीवन के प्रति उसमें उदासीनता आ गई। उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ कि अब मैं किसके पास जाऊँ जहाँ मुझे शान्ति प्राप्त हो और कौन मेरा उद्धार करे ? उस समय आकाश मार्ग से विचरते दो चारण मुनियों को उसने देखा । दृढप्रहारी खड़ा हो गया। उसने उन्हें हाथ जोड़े। मुनि नीचे उतरे । दृढप्रहारी ने आदि से अन्त तक अपने पाप शुद्ध भाव से व्यक्त किये और कहा, 'महाराज ! मेरे जैसे पापी का क्या उद्धार होगा ?" साधु ने कहा, 'उद्धार एवं पतन अपने हाथ की बात है । अवश्य ही कठोरतम पाप भी कठोर पश्चाताप एवं संयम से नष्ट हो सकते हैं । ' दृढ़प्रहारी ने कहा, 'भगवन्! तो मैं अपने पापों के पश्चाताप के लिए कठोर से कठोरतम उपाय भी करने के लिये तत्पर हूँ । ' दृढप्रहारी ने संयम अङ्गीकार किया और साथ ही निश्चय किया कि, 'ब्राह्मण, स्त्री, चालक और गाय की मैंने हत्या की है। जब तक वे हत्याएँ मेरे स्मृतिपट से न मिटें तब तक मैं अन्न जल ग्रहण नहीं करूँगा और सब कुछ सहन करूँगा ।' (३) चारण मुनि तो चले गये और दृढप्रहारी उसी कुशस्थल के वृक्ष के नीचे संयम अंगीकार करके कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े रहे । प्रातःकाल हुआ, लोगों के समूह एक के पश्चात् एक गाँव के गोचर में आये । कल
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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