SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सन्देह अर्थात् झांझरिया मुनि की कथा वचन और काया से व्रत अङ्गीकार किया है उसका मैं बराबर पालन करूँगा और हे कुलीन युवती! तू भी शील व्रत का पालन करके अपना जीवन उज्ज्वल कर ।' फाँद चूकी शेरनी जिस प्रकार क्रोध से तमतमा उठती है, उसी प्रकार वह युवती साधु को घुडकियाँ बताती हुई बोली, 'पकड़ो इस साधु को।' ___ मुनि वल पूर्वक भवन से बाहर निकल गये परन्तु उसने उनके पाँव में झाँझर (नूपुर) पहना दिया और चीखती-चिल्लाती उनके पीछे दौड़ी और कहती रही, 'पकड़ो पकड़ो इस मुनि को । इसने मेरा सतीत्व भंग करने के लिये बलात्कार करने का प्रयत्न किया और मेरा नूपुर (झाँझर) लेकर भाग रहा है।' निदोष लोग थोड़े ही रहस्य जानते हैं ? वे तो कहने लगे कि - 'यह कैसा दुष्ट मुनि है? भिक्षा देने वाली स्त्री के साथ बलात्कार करने लगा और नूपुर (झाँझर) लेकर भागा।' लोगों ने उसका पीछा किया और मुनि को पकड़ कर राजा के पास ले गये । राजा उस समय झरोखे में बैठा हुआ था। उसने नीचे लोगों की भीड़ देखी तो वह नीचे उतरा और उसने मुनि को पूछा, 'महाराज! सत्य वत कहें।' मुनि मौन रहे । लोग बाल, 'इसमें सत्य वात दीपक के समान है। नूपुर (झाँझर) मुनि के पाँव में पहना हुआ है। स्त्री चीखती हुई - 'मेरे साथ बलात्कार किया है' कह कर पीछा कर रही है। राजा ने कहा, 'शान्ति रखो, मैं सव सत्य जानता हूँ | मुनि निर्दोष है, स्त्री दोषी है। मैंने और रानी ने झरोखे में से स्वयं देखा है । इस कुलटा स्त्री ने मुनि के पाँवों में नूपुर (झाँझर) डालकर उन पर असत्य आरोप लगाया है ।' लोग लज्जित हुए और मदनब्रह्म मुनि उस समय से 'झाँझरिया मुनि' के नाम से जगत् की जिस्वा से अपने गुणों के लिए प्रशंसा पाने लगे। (३) कंचनपुर नगर के राजा तथा रानी दोनों महल के झरोखे में बैठे हुए थे और नगर के आसपास की हरियाली देख कर प्रफुल्लित हो रहे थे कि रानी की दृष्टि दूर कायोत्सर्ग ध्यानस्थित मदनब्रह्म मुनि पर पड़ी । उन्हें देख कर रानी के नेत्रों से आँसुओं की धारा वह चली। राजा ने रानी को अचानक आँसू आने का कारण पूछा, परन्तु उसका गला भर आने से वह कुछ बोल न सकी। राजा को सन्देह हो गया । उसने मान लिया कि ऐसे तो अनेक साधु वन में कायोत्सर्ग ध्यान में लीन रहते हैं और रानी ने मेरे साथ आज से पूर्व ऐसे अनेक साधुओं को निहारा है, फिर भी उसके नेत्रों में कभी आँसू नहीं आये । अवश्य ही यह मुनि कोई इसका पूर्व का प्रेमी प्रतीत होता है, जिसके कारण यह मेरे समक्ष कुछ बोल नहीं सकती,
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy