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________________ १०८ सचित्र जैन कथासागर भाग - १ मैले कुचैले वस्त्रों वाले पवित्र मुनि ने उज्ज्वल वस्त्रों में ढंके हुए युवती के मैले मन को पहचान लिया और वे मौन बने लौट रहे थे कि युवती उन्हें हाथों से रोक कर खड़ी हो गई और लज्जा का परित्याग करके नेत्र मटकाती हुई वोली, 'महाराज! यह उम्र क्या संयम की है? क्या इस सुन्दर, सुकोमल देह का, जंगल के पुष्प की तरह विना उपभोग के नष्ट होने के लिए राजन हुआ है? आप ये मैले वस्त्र उतार फैंकिये और मैं दे रही हूँ वे उज्ज्वल एवं सुन्दर वस्त्र धारण करें। यह भवन, ये सेवक, यह वैभव और मैं ये सब आपका ही है । मुनिवर! मुझे बिरहाग्नि सता रही है | मुझ काम-विह्वल का आप आलिंगन करें और सुधारस का सिंचन करें। आप दयालु हैं, मुझ पर दया करके मुझे अपनी वनायें ।' मुनि नीची दृष्टि रखकर बोले, 'तू भोली वाला है, तु सरल है । विषयों के विष का तुझे पता नहीं है। मैंने विषयों का विष निहारा है और फिर उनका परित्याग किया है। जगत् में दो पाप बड़े हैं - एक यारी और दूसरा चोरी । ये दो पाप इस भव में अपयश एवं कारागार दिलवाते हैं और पर-भव में घोर कप्ट प्रदान कराते हैं । उत्तम एवं कुलीन कुल में उत्पन्न हे वाला! कुलीन के लिये पर की कामना शोभा नहीं देती। मैं कुलीन हूँ और कुलीन संस्कारों में ही मैंने जीवन यापन किया है। उसे में दूपित कैसे करूँ? शील चिन्तामणी रत्न तुल्य है। उसे अल्प कालीन सुख के लिये तू क्यों खो रही है? जो मूर्ख हो वही महल होते हुए भी खुले में वर्षा से भीगता है । मैंने मन, . adiminitiiiii हरि सामान मुनि बोले, तूं भोली बाला है, विषयों के विष को तूं क्या जानें? __ मैंने विषय-विष को निहार कर उसका परित्याग किया है.
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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