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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गुरुवाणी आपको मिलने वाला है. जिस दिन आपने शर्त रखी कि मुझे यह प्राप्त हो जाए, सारी भावना कुण्ठित हो जाएगी. धर्म साधना के द्वारा आप जो प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं, सफल नहीं हो सकेगा, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जहां जो चीज मिलने वाली ही है, उसके लिए भावना क्यों ? कामना क्यों ? अपनी आदत से हम लाचार हैं, सारी धर्म साधना को दांव पर रख कर हम संसार प्राप्त करना चाहते हैं. समृद्धि मिल जाये, दो पैसा मिल जाए, जगत में सम्मान मिल जाए, इस जगत की कामना को लेकर आज तक हमारी साधना निष्फल गई, जीवन के उस भूतकाल में अनादि अनन्त काल मेरा निष्फल गया, मिला कुछ नहीं, सिवाय कर्मबन्धन के कुछ नहीं मिला. इनाम तो गया ही, साथ सजा भी मिली. संसार एक प्रकार की सजा है संसार स्वयं के अन्दर एक सेन्ट्रल जेल है. हम अपराधी बनकर के, कर्म के कैदी बनकर के यहां आये हैं, अतः आप ध्यान में रखकर के चलना, कोई व्यक्ति संसार में स्वतन्त्र नहीं है. कोई व्यक्ति आजाद नहीं है. बोलकर के आप आनंद लें कि मैं स्वतन्त्र हूँ, शब्दों से भले ही आप स्वतन्त्र हों, कार्य से आप स्वतन्त्र नही हैं. हर व्यक्ति चाहता है मैं सम्राट् बन जाऊँ, भिखारी बनकर के जीवन निकालना पड़ता है. हर व्यक्ति चाहता है, मैं करोड पति बन जाऊँ, दौलतमन्द बन जाऊँ सारे जीवन प्रयत्न याचना की भूमिका पर जीवन पूरा करना पडता है. हर व्यक्ति चाहता है, में आरोग्य प्राप्त करूँ, बीमारी में जीवन पूरा हो जाता है. हर व्यक्ति इसे चाहता है उसकी मनोकामना होती है कि संसार में मैं हुकूमत करूँ, मेरा अधिकार सारे संसार में कायम रहे, गुलामी में जीवन पूरा करना पडता है, नौकरी करके जीवन बिताना पड़ता है. कैसी लाचारी, अपनी इच्छा से आप जन्में नहीं अपनी इच्छा से आप मरने वाले भी नहीं. मरना भी आपके हाथ से नही. व्यक्ति चाहता है, मैं मर जाऊँ, मरना भी आपके हाथ में नहीं है. यह भी आपकी धारणा गलत है. साधना में आशीर्वाद का स्वरूप है. जगत के सारे बन्धनों से आपको मुक्त कर देता है. पूरा फ्रीडम देता है, पूरी आजादी आपको देता है. कर्म की गुलामी से मिटा करके आपको आजाद बनाता है. सम्राट् बनाता है. धर्म साधना का पुण्य प्रभाव है. धर्म करना नहीं, बिना धर्म किए ही मुझे इसका इनाम चाहिए. अनादि काल का एक संस्कार है, ह्यूमन साइकोलोजी है-: धर्मस्य फलमिच्छान्ति / धर्म नेच्छन्ति मानवाः जगत के व्यक्तियों के अन्दर एक स्वभाव है. धर्म करना नहीं और धर्म का फल मुझे चाहिए. बिना मजदूरी किए मुझे नफा चाहिए बिना श्रम किए मुझे विश्राम चाहिए. धर्मस्य फलमिच्छन्ति, पापं कुर्वन्ति सादराः जगत में किसी व्यक्ति को पाप की सजा नहीं चाहिए कोई व्यक्ति नहीं चाहता कि मैं अपराध कर्म करूं और इसकी सजा मुझे मिले. अपराध छोड़ना नहीं है, पाप बडे प्रेम 354 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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