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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - -गुरुवाणी हमारी परंपरा बड़ी अपूर्व वस्तु है. आत्मा को छोड़कर धर्म को छोड़ कर यदि आप जीवन में आगे बढ़ जाएं, तो ज्ञानियों ने कहा कि आपके मुंह पर भी कर्म राजा धूल ढालता है. धिक्कार है तुम्हें. धर्म तुम्हारे जीवन का परम कल्याणकारी मित्र है. उसको छोड़कर तुम इतने आगे बढ़ गए? आत्मा और धर्म को छोड़कर यदि आगे बढ़ोगे तो मुह पर धूल पड़ेगी. धिक्कार है ऐसे जीवन को. इस जीवन का कोई मूल्य नहीं है, कोई महत्व नहीं है. तिरस्कार के योग्य है ऐसा जीवन. योगी पुरुष ने बहुत सुंदर ढंग से उसको समझाया, कहा-कि तू इसे छोड़ दे. कैसी भी तुझे भूख लग जाए, उपेक्षा कर दे. यदि प्राण चला जाए तो भी चिन्ता न कर. वह तो जाने वाला है ही. दो दिन पहले चला जाए तो क्या हुआ. अतः इसके हाथ कभी मत खाना. वरना तुम्हारे अंदर की सारी उदार वृत्ति नष्ट हो जाएगी. न जाने भवान्तर में कहाँ किस योनि में जन्म लेना पड़े? सियार कहता है और कुछ नहीं - "अगर इसका पेट खा लूं तो, योगी ने कहा कि "यह तो पाप का गोदाम है." अन्यायोपार्जितवित्तपूर्णमुदरम्. अन्याय से उपार्जन किए हुए द्रव्य से इसने अपना पेट भरा है. कभी नीति और न्याय का पैसा इसके पेट में नही गया. कभी भूल कर के इस पेट का भक्षण मत करना. यह तो पाप का गोदाम है. बिचारा सियार विचार में पड़ गया. एक-एक अंग को लेकर के उसने चाहना की. कि भगवन्! यदि आपकी इच्छा हो तो इसको खा लूं. आखिर में सियार ने कहा "भगवन! इसके माथे को ही खा लूं." । योगी पुरूष ने कहा “यह तो पाप की पार्लियामेंट है. सारे दुर्विचार वहां से ही पैदा हुए. इसके अंदर पाप की मति है. गर्वेण तुंगशिरः बड़े गर्व से इसने अपने माथे को ऊपर रखा है. इस सिर का भक्षण मत करना. नहीं तो अहंकार प्रवेश कर जाएगा. ये सारे पाप के विचार तेरे अदर आ जाएगे. उसका परिणाम तू जानता है. भवान्तर के अंदर बुद्धि मिलेगी नहीं, निर्बुद्धि होगा. इसलिए भूल कर भी इसके माथे का भक्षण मत करना". "भवगन्, इसके पांव को खा लूं तो क्या हर्ज है? सारा शरीर छोड़ देता हूं केवल पांव खा लूंगा." “पादौ न तीर्थंगतौ" "इन पांवों से कभी तीर्थ यात्रा इसने नहीं की. कभी सत्पुरुषों की सेवा में इन पाँवों का प्रयोग नहीं किया. कभी कोई धर्म प्रवचन में या धर्म यात्रा में ये पांव नहीं गये. इसलिए इसे तू पूरा का पूरा ही छोड़ दे. भूखे मरना, तेरे लिए भले ही पुण्य न बने परन्तु इसका भक्षण करना, पाप अवश्य बन जाएगा." 247 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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