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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra RE www.kobatirth.org गुरुवाणी: बीमारी को आप दूर करें. हमारी यह भावना है, कि आप रोगमुक्त हो जाएं. रामकृष्ण पहले तो हंसे और हंस करके उन प्रतिष्ठित व्यक्तियों से और विद्वानों से कहा. "तुम मुझे समझ नहीं पाए. आज तक क्या तुम मुझे पागल समझते हो, मुझे मूर्ख समझते हो." नहीं! ऐसी कोई बात नहीं. किसने कहा ? "तुम बात तो ऐसी ही कर रहे हो कि जैसे मैं मूर्ख हूं, पागल हूं, कुछ समझता ही नहीं हूं. क्या बात करते हो इस शरीर के लिए मैं अपनी प्रार्थना लुटा दूं और मां से यह याचना करूं. कितना मूर्ख हूं कि राख के अन्दर घी डालूं. यह शरीर जलने वाला है, नष्ट होने वाला है. कल इसे तुम जला कर के राख कर दोगे. मैं अपनी अन्तरात्मा की प्रार्थना, इस शरीर के लिए कैसे लुटा दूं. मां की प्रार्थना इसलिए करूँ. ऐसी मूर्खता रामकृष्ण से नहीं होगी." ऐसी विरक्त भावना थी. - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वे एक सामान्य सन्त थे, पढ़े-लिखे नहीं थे, गृहस्थ जीवन में थे और फिर भी उनका मन सन्त की तरह था. वे एकदम शांत और सज्जन स्वभाव के थे. आप उनकी गहराई देखिए आत्मा का लक्ष्य आप देखिए कितनी जागृत अवस्था थी और उस जागृति के अन्दर उन्होंने अपने शरीर का विसर्जन कर दिया पर कभी मां से याचना नहीं की कि "मां तेरा शिष्य हूं और मुझे दुःख से तू मुक्त कर दे" नहीं "मैंने पूर्व में कोई ऐसा अपराध किया है जिसकी सजा मुझे मिली है और प्रसन्नता से मुझे सजा भोग लेनी है चाहे शारीरिक पीड़ा के द्वारा हो या किसी अन्य प्रकार से हो. सजा, सजा है. - उन्होंने अन्तिम समय विवेकानन्द को बुलाया. सदाचारी आत्मा के गुण और विचार कैसे होते हैं, उसका यह एक नमूना है. बुलाकर के विवेकानन्द से कहा कि मेरे मन में एक विचार आता है, मेरे पास आठ सिद्धियां हैं और वे सहज में मिली है. बिना याचना के, बिना मांगे मिल गयीं क्योंकि दृष्टि इतनी शुद्ध थी और जहां दृष्टि शुद्ध होगी, वहां सारी सिद्धियां बिना बुलाये आएंगी. कैसे देखिएगा कि यह एक अपूर्व कला है. जो नेत्र परमात्मा के दशर्न करे, जो नेत्र वीतराग निर्विकार दृष्टि को देखे, जो नेत्र साधु-सन्तों के चरणों में गिरे. संत पुरुषों का दर्शन करे और यदि उस नेत्र में पाप का प्रवेश हो जाए तो आंख में धूल पड़ जायेगी. ज्ञानियों ने कहा- वहां ऐसी आंख का क्या काम वह दर्शन की साधना कहां सफल ? 108 - सारी सुन्दरता परमात्मा के चेहरे में है. सन्त-पुरुषों के आत्मिक सौन्दर्य में छिपी है और जब उस सौन्दर्य का पान करने वाली आत्मा में गन्दगी प्रवेश होने लगे तो हमारी साधना का मूल्य क्या रहा? ज्ञानियों ने कहा, जिस आंख में ऐसी पाप की धूल पड़ी हो उसका कोई मूल्य नहीं. For Private And Personal Use Only पर
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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