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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८८२ विचार रत्नसार. अनादिकाळना अज्ञान, मोह, मिथ्यात्व, प्रमादादि रूपभववासनाना जोरे आवी उत्तम योगवाइवाळा मनुष्यभवतुं लेशमात्र पण बहुमान नथी आवतुं, हा ! इति खेदे केवी अफसोसनी वात छे, माटे हे चेतन ! आ परमात्माना वचने करीने हवे चेत! अने जे कुळमां उत्तम कुळना प्रभावे करीने हिंसानो आचारज नथी तेवा अहिंसक कुळनी प्राप्ति छतां श्रीजिनेश्वरभगवंतनो धर्म पाळवामां प्रमादने छोड, अने तारं खरं कर्तव्य आ मनुष्य भवमां शु? छे, तेनो विचार करी विषयकषायनी प्रवृत्तिनो जेम बने तेम संकोच कर, अने तत्त्वमार्गने आदर, सुदेव, सुगुरु, अने सुधमने ओळख; अने ते ओळखाण पूर्वक शुद्धक्रियानुं सेवन कर, अने सरळता, कोमळता, विनयादि गुण धारण करतां शीख जेथी परंपराये तारा आत्मानुं चिरंकाळ कल्याण थशे, तथास्तु शुभंभवतु, शांतिः शांतिः शांतिः। पूर्वोक्त सूक्ष्मअद्धा काळे करी आयुष्यमान, कर्मस्थिति, कायस्थिति, तथा अन्य काळमानादिनुं प्रमाण थाय छे; ३ पूर्वोक्त वाळारखंड स्पा जे आकाश प्रदेश तेने प्रत्येकने समय समय काढतां जेवारे पल्यवाळायथी खाली थाय तेटला काळने बादरक्षेत्रपल्योपम कहिए, अने वाळायने स्पर्या सर्व आकाश प्रदेश पल्यना समय समय खाली करतां जेवारे पल्य निर्लेप थाय एटला काळने सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपम कहिए, तेणे करी दृष्टि For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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