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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८६८ विचार रत्नसार: २१५ प्र० - दर्शननी क्षपक श्रेणि कया Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुणठाणाथी मांडे अने चारित्रनी क्षपक श्रेणि कया गुणठाणाथी मांडे ? उ०- दर्शननी क्षपक श्रेणि ते चोथा गुणटाणाथी मांडे, चारित्रनी क्षपक श्रेणि आठमांथी मांडे. २१६ प्र० - ज्ञानावरणीय कर्मनो जघन्य अने उत्कृष्टबंध केटलो ? उ०- कर्मनोबंध जवन्यथी एक समयनो, जवन्य स्थिति ते अंतर्मुहूर्ताइ भोगवे, उत्कृष्ट ज्ञानावरणीय कर्मनी वीस कोडाकोडी इम ए रीते छे. २१७ प्र०- सर्व जीवोनी मूळ भूमिका कइ ? उ०- भव्य, अभव्य, सर्व जीव सूक्ष्म निगोदथी नीकव्या छे. मूल भूमिका ते जाणवी. २१८ प्र० - जघन्य अने उत्कृष्ट योगनो काल केटलो छे ? उ०- मनोयोगनो जघन्यकाल एक समयनो, उत्कृष्ट अंतमुहूर्त्तनो काल एम वचनयोगनो पण काल ए रीते छे एम धार्युं छे. २१९ प्र० - वस्तुने विषे षड्गुण हानि वृद्धिनुं स्वरूप कामां कहो. उ०- गुण पर्याय सहित जे वस्तु तेने द्रव्य कहीए, ते उत्पाद, व्यय अने ध्रुवरूप ऋण अवस्थाए सहित छे, परिणामी छे, ते परिणमन उत्पाद व्ययरूप पर्यायरूपे परिणमन, जघन्य, मध्यम, अने उत्कृष्ट स्वरूपे छे, तेने लइने वस्तुमां षड्गुण हानि वृद्धि - रूप अगुरुलघु पर्याय जे दरेक वस्त मात्रमां निरंतर वर्ते छे, ते निपजे छे, ते आवी रीतेः-. ११६ For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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