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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कर्म्मग्रन्थस्य बार्थः ७३१. किती सुरा - देवता उत्कृष्ट रस बांधे, तथा अमराउ - देवतानो आउखो उत्कृष्टरसे अप्रमत्त गुणठाणे बांधे, शेष ६४ प्रकृतिनो उत्कृष्ट रस च्यार ४ गतिना मिथ्यात्वी तीव्रकषायी बांधे. ए उत्कृष्ट रसना स्वामी कह्या ।। ६८ ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थीणतिगं अण मिच्छं, मंदरसं संजमुम्मुहो मिच्छो । बियतियकसाय अविरय, देसपमत्तो अरइ सोए ॥ ६९ ॥ अर्थ - हवे जवन्य रसना स्वामी कहे छे - थिणद्धी तीन निद्रानिद्रा १, प्रचलाप्रचला २, थिणद्धी ३, ए तीन, अनंतानुबंधी ४, मिथ्यात्वमोहनी १, ए आठ प्रकृति मंदरसे संयमने सन्मुख मिथ्यात्वी बांधे, एह प्रकृतिना बंधकमें वि-, शुद्ध परिणामी एहिज जीव छे, बियकषाय- बीजो कषाय अविर - अविरति समकीती बांधे, त्रीजो कषाय जघन्य रसे देशविरतेि बांधे, अरति, शोक, ए बे प्रकृति प्रमत्त गुणठाणे मुनि जघन्यर से बांधे ।। ६९ ।। अपमाइ हारगदुगं, दुनिद्द असुवन्न हास रइ कुच्छा । भयमुवघायमपुत्रो, अनियट्टी पुरिससंजलणे ॥ ७० ॥ अर्थ - अप्रमत्त गुणठाणाना आदि समये आहारकदुग जवन्यरसे बांधे, बेनिद्रा, निद्रा १, तथा प्रचला २, अंशुभवर्णादि ४, हास्य, रति, दुगंछा, भय, उपघात, ए इग्यार ११ प्रकृतिनो अपूर्वकरण गुणठाणे जघन्यरस बांधे, पुरुषवेद, संजलणा ४, ए पांच प्रकृति अनिवृत्तिबादर गुणठाणे जघन्यरसे बांधे ॥ ७० ॥ १५१ For Private And Personal Use Only :
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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