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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७३० कर्मग्रन्थस्य टवार्थः प्रकृतिनो सुरमिछा-मिथ्यात्वी देवता उत्कृष्ट रस बांधे, तथा विगल ३, सूक्ष्म ३, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण ए ३, नरकगति १, नरकानुपूर्वी २, नरकायु ३, ए नरकत्रिक तथा तिरिआयु १, मनुष्यायु १, ए ११ प्रकृतिनो उत्कृष्टो रस तिथंच तथा मनुष्य मिथ्यात्वी बांधे, तथा तिर्यच दुग-तियेच गति १, तियेचानुपूर्वी ए बे अने छेवठो संघयण ए ३ प्रकृतिनो उत्कष्ट रस देवता, नारकी मिथ्यात्वी बांधे. ॥६६॥ विउविसुराहारग दुग, सुखगइ वन्न चउ तेय जिण सायं समचउपरघा तसदस, पणिंदि सासुच्च खवगा उ॥६७ अर्थ-वैक्रिय दुग-वैक्रिय शरीर १, वैक्रिय उपांग २, देवद्विक २, आहारकाद्विक २, शुभ विहायोगति १, वर्णादि ४, तैजस शरीर १, कार्मण १, अगुरुलघु १, निर्माण १, जिननाम १, सातावेदनीय १, समचौरस संस्थान १, पराघात १, त्रसनो दशको १०, पंचेन्द्री जाति १, श्वासोश्वास १, उच्चगोत्र १, ए बत्रीस ३२ प्रकृतिनो उत्कृष्ट रस खवगाउक्षपकश्रेणिमां बांधे तिहां साता वेदनीय १, उच्चगोत्र १, यशनाम १, ए ३ तीन प्रकृतिनो सूक्ष्मसंपराय गुणठाणे उत्कृष्ट रस बांधे, शेष २९ प्रकृतिनो उत्कृष्ट रस अपूर्वकरण गुणठाणे बांधे.॥६७ तमतमगा उज्जोयं, सम्मसुरा मणुय उरलदुग वइरं। अपमत्तो अमराउं, चउगइमिच्छा उ सेसाणं ॥६॥ ___ अर्थ उद्योतनामकर्मनो उत्कृष्ट रस तमतमगा-तमतमा नरकना नारकी बांधे, मनुष्यद्ग २, औदारिकदुग २, वज्र ऋषभनाराचसंघयण १, ए पांच प्रकृतिनो उत्कृष्ट रस सम १५० For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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