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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६४ ध्यानदीपिकाचतुष्पदी. प्रथम ह्रीं प्रणव दोय, आगे विची ए अक्षर सार जी; सः इस्त्रीहं अंते दोय प्रणवहीं सेती, विद्या ए जगसारजी. ध्यावो० १५ सिद्धचक्र ए मंत्रशिरोमणि, सहु विद्यानो सार जी; अरिहंताणं पापक्षयंकरं, सिद्धाणं सिद्धकार जी. व्यावो० १६ आचारिज निज गुणने चरचे, व्याधि हरे उपाध्याय जी; साधु सुखंकर निजगुण साधे, चोचुलकपद धार जी. व्याघो० १७ इत्यादिक उत्तमपद व्यावे, बाह्यालंबनरूप जी; मैत्रीभाव व सह उपर, निजगुण ग्रहो अनूप जी. ध्यावो० १८ वीतराग मुनि नित प्रणिध्यानि, परमसंसर्ग विहीन जी; स्यादवाद श्रुतसार लहीने, लेवे त्रिगुण नगीन जी. ध्यावो० १९ बाभावी मगनभाव तजि, निज शुद्धातम ध्यावे जी; अक्षरत्रय गुण लही अमोलक, देवचंद्र सुख पावे जी. व्यावो० २० दहा. " हिव रूपस्थ तणी कथा; सुगो भविक चित लाय; सर्वजाण अर्हत प्रभु, सो परमेसर ध्याय . जगहित थीर मंदिरसमो, ज्ञानादिक गुणगेह; सप्तधातुविण संवरी शिवलखमीसु नेह. जस चरित्र अचिंत्य छे, जगबांधव जगजाण; वि कषायादिक दमी, भववव नीला माण. देवक को नवि कहे, जेहनी ज्ञान विभूति; भंजे सह मिथ्यातगिर, स्यादवादनी रीति. गुणनिधि ज्ञानी सर्वगत, परमातमपद धार; ए ज्ञानी निज आतमा, परमातमसन सार. ११२ For Private And Personal Use Only १ २ ३ ५
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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