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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ध्यानदीपिकाचतुष्पदी. ५३७ सम वरण ठामै नाडि वामे थित पृच्छकनो जय कह्यो, नविना वेग विषम नामे शस्त्र संपातन लह्यो; रोगार्त्त भूतगृहीत सप्पै दष्टने ताजो करे, शशि नाडि चारी ग्रहे मंत्री तो उभयनो दुष हरे. हां० उ० ९ 68 12 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाम नाडी रे वायु पूर्ण जल जो बसे, इहिती रे सिद्धि तुरत तिहां उपदिसे; जब जीवत रे धन तन लाभादिक बहू, निष्फल रे पवननष्टथी सुष सहू सुष सह जाणे पवनसे ती पुष्प पाडे आपणो, ते पछी जाणे मरण जीवन सुष दुषनो यांपणो; अति शीघ्र लाभे वरुण भूमे बहु दिने कारज सरे, ए तुच्छ लाभे पवन अग्ने सिद्धता पिण क्षय करे. हां० सि० १० शीघ्र आवे रे जलतत्त्वे थिर भूमिमे, वीय ठामे रे कहे पवन मृत अगनिमे; वह्नितत्वे रे घोर युद्ध भय अनलमे, भूमितत्त्वे रे युद्धे जय वली वरुणमे; वरुणमे झीपे अधिक दीपे सिंधु थाये रिपुथकी, कै शत्रुदलनो भंग थाये वधे जगमे जस वकि; भूतखमांहे थाय वर्षा वरुणतत्त्वे अति सही, झड थाय घन विणु पवनत वह्निवे घन नही. ११ भूजलमे रे सस्य बहुत अति हे सही, नभ पवने रे मध्य अग्निमे ह्वे नही; गुरु राजा रे बंध वृद्ध मिलवा भणी, मने हित रे सिद्धि चाह नारीतणी; ८५ For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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