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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२२ ध्यानदीपिकाचतुष्पदी. मोह रागादिक भव कारण ए, तजिज्यो एहनो संग रे; देवचंद्र सुषरूप पिछाणे, निज अनुभवरस चंग रे. मोह० १६ दूहा. मोह वह्नि उपशमविवा, उथेडण तस राग; संयमयी थिर करणने, भजि उपशम वड भाग. इष्ट अनिष्ट संयोगथी, जसु मन थिर सोभंत; काम भोग तनुराग तजि, उपशम भजि गुणवंत. भववागुरने छेदने, ग्रहि शिवपुरनो राज ; शम रवियी हरि राग तम, भजि आतम शिव ताज. ३ निज आत्मा निश्चय करी, जीव कर्म नित भिन्न; ज्ञान राज्य सुष तेहने, जे शमधारी धन्न. निज आतम गुण अनुभवो, तजि रागादिक भाव; राग बाग भंजे मुनि, उपशम गजने दाव. मोह राग बंधन गयां, वाघे उपशम कंति; - आश अविद्या नवि रहे, आयां उपशम शंति. For Private And Personal Use Only १ ढाल - पास जिणंद जुहारिये. एहनी ॥ उपशम नाव धरो मुनि, जिम छूटे कर्म अनंतो रे; परम ध्यान संयम जिन दाष्यो, उपशम भाव महंतो रे. उप० १ शांतचित्त मुनि सुखीयो दाष्यो, ज्ञान व्यान गुणवारो रे; सहज सिद्धि सुष वांछे जे ते, धरस्ये उपशम सारो रे. उप० २ दोष जोग त्रय विणु निज आतम, भावे उपशम भावे रे; अन्य द्रव्य पर्यायथी आतम, भिन्न करण समदावे रे, उप० ३ ७०
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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