SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 511
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८६ 'व्यानदीपिकाचतुष्पदी. सर्व ग्रंथनो सार छे रे, जीवदयावत एह जग माता जग सुषकरू रे, कृषि उपरि जिम मेह. कृषि उपरि जिम मेह सुहावै, स्वर्ग मोक्ष सुख बीज कहाँवै; व्यसन विषय दहaट्ट गमावे, जिन वरया धरम गुण गाँवै जी. ५सां० सप्त द्वीप भूदानयी रे, जाय न हिंसा पाप; स्वर्ण कोडि धनने सटे रे, प्राण तजै न को आप. प्राण तजै न को आपणो लोक, स्नेहवसै हिंसा करै फोक; सूचक असि धनुष एथोक, राषै देव तिके युत सोक जी. ६ सां० मुष आषे मार्या थकां रे; पांमै सिवपुर वास; तो हणि निज परिवारने रे, पामै ते सुष पास. पाते सुप घास समाज, दीन अनाथ हणौ किण काज; हिंसाथी नभ सम दुष साज, हिंसा एह कही जिनराज जी. ७ सां० ज्ञान ध्यान तप जप तणी रे, जीषदया कही माता; दयावंत इंद्री दमे रे, लहै ज्ञान शिव साता. है ज्ञान शिव सात दयाथी, चित्त कठोर मधुर रसनाथी; ते पण दायौ हिंसक साथी, लेज्यो भविक दया जय हाथीजी. ८ सां० नरक है झष तुं दली रे, हिंसाने परिणाम; यी अधिकी अछे रे, जीवदया सुषधाम. जीवदया सुपधाम अपारू, जन्म मरण भय तणीय निवारू; शिवपुर मारग साथ ए वारू, पर तनु पीडा दुष नीकारू जी. ९ सां० मानव पिण राक्षस समो रे, जे छे हत्याकार; जीवदया माता समी रे, विद्यानी दातार. विद्यानी दातार ए वाणी, अभयदान द्यौ करुणा आणी; आवे संपत जेम न भाणी, ते न कही सकै इंद्र इंद्राणीजी. १० सां० ३४ For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy